कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
डॉक्टर- मैं किसी को अपना मित्र नहीं समझता, सभी मेरे बैरी हैं, मेरे प्राणों के ग्राहक हैं ! नहीं तो क्या आँख ओझल होते ही मेरी मेज से पाँच सौ रुपये उड़ जायँ, दरवाजे बाहर से बंद थे, कोई ग़ैर आया नहीं, रुपये रखते ही उड़ गये। जो लोग इस तरह मेरा गला काटने पर उतारू हों, उन्हें क्योंकर अपना समझूँ। मैंने खूब पता लगा लिया है, अभी एक ओझे के पास से चला आ रहा हूँ। उसने साफ कह दिया कि घर के ही किसी आदमी का काम है। अच्छी बात है, जैसी करनी वैसी भरनी। मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बैरियों का शुभचिंतक नहीं हूँ। यदि बाहर का आदमी होता तो कदाचित् मैं जाने भी देता। पर जब घर के आदमी जिनके लिए रात-दिन चक्की पीसता हूँ, मेरे साथ ऐसा छल करें तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रिआयत न की जाय। देखना सबेरे तक चोर की क्या दशा होती है। मैंने ओझे से मूठ चलाने को कह दिया है। मूठ चली और उधर चोर के प्राण संकट में पड़े।
जगिया घबड़ा कर बोली- भइया, मूठ में जान जोखम है।
डॉक्टर- चोर की यही सजा है।
जगिया- किस ओझे ने चलाया है?
डॉक्टर- बुद्धू चौधरी ने।
जगिया- अरे राम, उसकी मूठ का तो उतार ही नहीं।
डॉक्टर अपने कमरे में चले गये, तो माँ ने कहा- सूम का धन शैतान खाता है। पाँच सौ रुपया कोई मुँह मार कर ले गया। इतने में तो मेरे सातों धाम हो जाते।
अहल्या बोली- कंगन के लिए बरसों से झींक रही हूँ, अच्छा हुआ, मेरी आह पड़ी है।
माँ- भला घर में उसके रुपये कौन लेगा?
अहिल्या- किवाड़ खुले होंगे, कोई बाहरी आदमी उड़ा ले गया होगा।
माँ- उसको विश्वास क्योंकर आ गया कि घर ही के किसी आदमी ने रुपये चुराये हैं।
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