कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
रावण भी कल रात से इसी चिन्ता में पड़ा हुआ था; किन्तु अपनी प्रजा के सामने वह अपने दिल की कमजोरी को प्रकट न कर सका। उसे इसका धैर्य न था कि कोई उसके कार्यों पर आपत्ति करे। आपत्ति सुनते ही वह आपे से बाहर हो जाता था। उसका विचार था कि प्रजा का काम है राजा की आज्ञा मानना, न कि उसके कामों पर आपत्ति करना। क्रोध से बोला- तुम्हें ऐसी प्रार्थना करते हुए लाज नहीं आती? जिस आदमी ने मेरी बहन की मर्यादा धूल में मिलायी, उससे इसका बदला न लूं! ऐसा कभी नहीं हो सकता। रावण इतना शीलरहित और निर्लज्ज नहीं है। सीता मेरी है और मेरी रहेगी। तुम लोग जाकर अपना काम देखो। देश की रक्षा का मैं उत्तरदायी हूं। मैं तुमसे इस विषय में कोई परामर्श लेना नहीं चाहता।
यह फटकार सुनकर सब लोग चुप हो गये। सभी रावण के क्रोध से डरते थे, किन्तु विभीषण प्रजा का सच्चा मित्र था और न्यायोचित बात कहने में उनकी ज़बान कभी नहीं रुकती थी। बोला, महाराज! राजा का धर्म है कि जब प्रजा को पथभ्रष्ट होते देखे तो दण्ड दे, उसी प्रकार प्रजा का भी धर्म है कि जब राजा को पथभ्रष्ट होते देखे तो समझाये। आपको रामचन्द्र से अपमान का बदला लेना था तो उन पर आक्रमण करते। उस समय सारा देश आपका साथ देता। सीताजी को यहां लाकर कैद कर रखने में आपने अन्याय किया है और हमारा कर्तव्य है कि हम आपको समझायें। अगर आपने सीताजी को न वापस किया तो लंका पर अवश्य विपत्ति आयेगी।
रावण ने जब देखा कि उसका भाई भी प्रजा का पक्ष ले रहा है, तो और भी क्रुद्ध होकर बोला- विभीषण, तुम पूजा करने वाले, पोथीपुराण के कीड़े हो, राज्य के विषय में जबान खोलने का तुम्हें अधिकार नहीं। चुप रहो, मैं तुमसे अधिक योग्य हूं।
विभीषण- मैं आपको जता देना चाहता हूं कि इस लड़ाई में आपका साथ प्रजा कदापि न देगी।
रावण की आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं। गरजकर बोला- मैं जो कुछ कहूं या करूं प्रजा को मानना पड़ेगा।
विभीषण ने जोश में आकर कहा- कदापि नहीं। पाप के काम में प्रजा आपका साथ नहीं दे सकती।
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