कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
अब रावण से सहन न हो सका। उसने उठकर विभीषण को इतने जोर से लात मारी कि वह कई पग दूर जा गिरा; और फिर बोला- निकल जा मेरे राज्य से! इसी वक्त निकल जा! मैं तुझ जैसे देशद्रोही और धोखेबाज का मुंह नहीं देखना चाहता। तू मेरा भाई नहीं, मेरा शत्रु है। मुझे ज्ञात न था कि तू अपनी कुटी में बैठा हुआ प्रजा को मेरे विरुद्ध भड़काता रहता है, अन्यथा आज तू मेरे सामने इस तरह जबान न चलाता। फिर कभी मेरे राज्य में पैर न रखना, वरना जान से हाथ धोयेगा।
विभीषण ने उठकर कहा- महाराज, आप मेरे बड़े भाई हैं इसलिए मैंने आपको समझाने का साहस किया था; उसका आपने मुझे यह दण्ड दिया। आपकी आज्ञा सिर आंखों पर। मैं जाता हूं। आप फिर मेरा मुंह न देखेंगे, किन्तु इतना फिर कहता हूं कि आपको एक दिन पछताना पड़ेगा। और उस समय आपको अभागे विभीषण की बात याद आयेगी।
विभीषण यहां से अपमानित होकर सुग्रीव की सेना में पहुंचा और सुग्रीव से अपना सारा वृत्तान्त कहा। सुग्रीव ने रामचन्द्र को उसके आने की सूचना दी। रामचन्द्र ने विचार किया कि कहीं यह रावण का भेदी न हो। हमारी सेना की दशा देखने के लिये आया हो। इसे तुरन्त सेना से निकाल देना चाहिये। अंगद, जामवंत और दूसरे नायकों ने भी यही परामर्श दिया। उस समय हनुमान बोले- आप लोग इस आदमी के बारे में किसी प्रकार सन्देह न करें। लंका में यदि काई सच्चा और सज्जन पुरुष है, तो वह विभीषण है। जिस समय सारा दरबार मेरा शत्रु था, उस समय इसी आदमी ने मेरी जान बचायी थी। इसे अवश्य रावण ने राज्य से निकाल दिया है। यह अब आपकी शरण में आया है। इससे शीलरहित व्यवहार करना उचित नहीं। आखिर रामचन्द्र का सन्देह दूर हो गया। उन्होंने उसी समय विभीषण को बुलाया और बड़े तपाक से मिले।
विभीषण बोला- महाराज! आपसे मिलने की बहुत दिनों से आकांक्षा थी, वह आज पूरी हुई। मैं अपने भाई रावण के हाथों बहुत अपमानित होकर आपकी शरण आया हूं। अब आप ही मेरा बेड़ा पार लगाइये। रावण ने मुझे इतनी निर्दयता से निकाला है, जैसे कोई कुत्ते को भी न निकालेगा। अब मैं उसका मुंह नहीं देखना चाहता।
रामचन्द्र ने कहा- किन्तु निरपराध तो कोई अपने नौकर को भी नहीं निकालता। सगे भाई को कैसे निकालेगा?
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