कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
ज्योंही रामचन्द्र विमान से उतरे, भरत दौड़कर उनके चरणों से लिपट गये। उनके मुंह से शब्द न निकलता था। बस, आंखों से आंसू बह रहे थे। रामचन्द्र उन्हें उठाकर छाती से लगाना चाहते थे, किन्तु भरत उनके पैरों को न छोड़ते थे। कितना पवित्र दृश्य था! रामचन्द्र ने तो पिता की आज्ञा को मानकर वनवास लिया था, किन्तु भरत ने राज्य मिलने पर भी स्वीकार न किया, इसलिए कि वह समझते थे कि रामचन्द्र के रहते राज्य पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने राज्य ही नहीं छोड़ा, साधुओं का सा जीवन व्यतीत किया, क्योंकि कैकेयी ने उन्हीं के लिए रामचन्द्र को वनवास दिया था। वह साधुओं की तरह रहकर अपनी माता के अन्याय का बदला चुकाना चाहते थे। रामचन्द्र ने बड़ी कठिनाई से उठाया और छाती से लगा लिया। फिर लक्ष्मण भी भरत से गले मिले। उधर सीता जी ने जाकर कौशिल्या और दूसरी माताओं के चरणों पर सिर झुकाया। कैकेयी रानी भी वहां उपस्थित थीं। तीनों सासों ने सीता को आशीर्वाद दिया। कैकेयी अब अपने किये पर लज्जित थीं। अब उनका हृदय रामचन्द्र और कौशिल्या की ओर से साफ हो गया था।
आज रामचन्द्र के राज्याभिषेक का शुभ दिन है। सरयू के किनारे मैदान में एक विशाल तम्बू खड़ा है। उसकी चोबें, चांदी की हैं और रस्सियां रेशम की। बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए हैं। तम्बू के बाहर सुन्दर गमले रखे हुए हैं। तम्बू की छत शीशे के बहुमूल्य सामानों से सजी हुई है। दूर-दूर से ऋषि-मुनि बुलाये गये हैं। दरबार के धनीमानी और प्रतिष्ठित राजे आदर से बैठे हैं। सामने एक सोने का जड़ाऊ सिंहासन रखा हुआ है।
एकाएक तोपें दगीं, सब लोग संभल गये। विदित हो गया कि श्रीरामचन्द्र राज भवन से रवाना हो गये। उनके सामने घंटा और शंख बजाया जा रहा था। लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, हनुमान, सुग्रीव इत्यादि पीछे-पीछे चले आ रहे थे। रामचन्द्र ने आज राजसी पोशाक पहनी है और सीताजी के बनाव सिंगार की तो प्रशंसा ही नहीं हो सकती।
ज्योंही यह लोग तम्बू में पहुंचे, गुरु वशिष्ठ ने उन्हें हवनकुण्ड के सामने बैठाया। ब्राह्मण ने वेद मन्त्र पढ़ना आरम्भ कर दिया। हवन होने लगा। उधर राजमहल में मंगल के गीत गाये जाने लगे। हवन समाप्त होने पर गुरु वशिष्ठ ने रामचन्द्र के माथे पर केशर का तिलक लगा दिया। उसी समय तोपों ने सलामियां दागीं, धनिकों ने नजरें उपस्थिति कीं; कवीश्वरों ने कवित्त पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। रामचन्द्र और सीताजी सिंहासन पर शोभायमान हो गये। विभीषण मोरछल झलने लगा। सुग्रीव ने चोबदारों का काम संभाल लिया और हनुमान पंखा झलने लगे। निष्ठावान हनुमान की प्रसन्नता की थाह न थी। जिस राजकुमार को बहुत दिन पहले उन्होंने ऋष्यमूक पर्वत पर इधर-उधर सीता की तलाश करते पाया था, आज उसी को सीता जी के साथ सिंहासन पर बैठे देख रहे थे। इन्हें उस स्थान तक पहुंचाने में उन्होंने कितना भाग लिया था, अभिमानपूर्ण गौरव से वह फूले न समाते थे।
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