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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


कुछ काल तक बालाजी ध्यान में मग्न रहे, तत्पश्चात बोले- मेरा जाना आवश्यक है। मैं तुरंत जाऊंगा। आप सदिया की, ‘भारत सभा’ को तार दे दीजिये कि वह इस कार्य में मेरी सहायता करने को उद्यत रहें।

राजा साहब ने सविनय निवेदन किया- आज्ञा हो तो मैं चलूं?

बालाजी- मैं पहुंचकर आपको सूचना दूँगा। मेरे विचार में आपके जाने की कोई आवश्यकता न होगी।

धर्मसिंह- उतम होता कि आप प्रात:काल ही जाते।

बालाजी- नहीं। मुझे यहाँ एक क्षण भी ठहरना कठिन जान पड़ता है। अभी मुझे वहां तक पहुचंने में कई दिन लगेंगे।

पल-भर में नगर में ये समाचार फैल गये कि सदिया में बाढ़ आ गयी और बालाजी इस समय वहां जा रहे हैं। यह सुनते ही सहस्रों मनुष्य बालाजी को पहुंचाने के लिए निकल पड़े। नौ बजते-बजते द्वार पर पचीस सहस्र मनुष्यों का समुदाय एकत्र हो गया। सदिया की दुर्घटना प्रत्येक मनुष्य के मुख पर थी लोग उन आपत्ति-पीड़ित मनुष्यों की दशा पर सहानुभूति और चिन्ता प्रकाशित कर रहे थे। सैकड़ों मनुष्य बालाजी के संग जाने को कटिबद्ध हुए। सदियावालों की सहायता के लिए एक फण्ड खोलने का परामर्श होने लगा।

उधर धर्मसिंह के अन्त:पुर में नगर की मुख्य प्रतिष्ठित स्त्रियों ने आज सुवामा को धन्यवाद देने के लिए एक सभा एकत्र की थी। उस उच्च प्रसाद का एक-एक कोना स्त्रियों से भरा हुआ था। प्रथम वृजरानी ने कई स्त्रियों के साथ एक मंगलमय सुहावना गीत गाया। उसके पीछे सब स्त्रियां मण्डल बांध कर गाते-बजाते आरती का थाल लिये सुदामा के गृह पर आयीं। सेवती और चन्दा अतिथि-सत्कार करने के लिए पहले ही से प्रस्तुत थीं। सुवामा प्रत्येक महिला से गले मिली और उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे अंक में भी ऐसे ही सुपूत बच्चे खेलें। फिर रानीजी ने उसकी आरती की और गाना होने लगा। आज माधवी का मुखमंडल पुष्प की भांति खिला हुआ था। मात्र वह उदास और चिंतित न थी। आशाएं विष की गांठ हैं। उन्हीं आशाओं ने उसे कल रुलाया था। किन्तु आज उसका चित्त उन आशाओं से रिक्त हो गया हैं। इसलिए मुखमण्डल दिव्य और नेत्र विकसित हैं। निराश रहकर उस देवी ने सारी आयु काट दी, परन्तु आशापूर्ण रह कर उससे एक दिन का दु:ख भी न सहा गया।

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