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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


सुहावने रागों के आलाप से भवन गूंज रहा था कि अचानक सदिया का समाचार वहां भी पहुंचा और राजा धर्मसिंह यह कहते यह सुनायी दिये- आप लोग बालाजी को विदा करने के लिए तैयार हो जायें वे अभी सदिया जाते हैं।

यह सुनते ही अर्धरात्रि का सन्नाटा छा गया। सुवामा घबडाकर उठी और द्वार की ओर लपकी, मानों वह बालाजी को रोक लेगी। उसके संग सब-की-सब स्त्रियां उठ खडी हुईं और उसके पीछे-पीछे चलीं। वृजरानी ने कहा- चची। क्या उन्हें बरबस विदा करोगी? अभी तो वे अपने कमरे में हैं।

‘मैं उन्हें न जाने दूंगी। विदा करना कैसा?

सुवामा- मैं क्या सदिया को लेकर चाटूंगी? भाड में जाय। मैं भी तो कोई हूं? मेरा भी तो उन पर कोई अधिकार है?

वृजरानी- तुम्हें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें न करना। सहस्रों मनुष्य केवल उनके भरोसे पर जी रहे हैं। यह न जायेंगे तो प्रलय हो जायेगा।

माता की ममता ने मनुष्यत्व और जातित्व को दबा लिया था, परन्तु वृजरानी ने समझा–बुझाकर उसे रोक लिया। सुवामा इस घटना को स्मरण करके सर्वदा पछताया करती थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैं आपसे बाहर क्यों हो गयी। रानी जी ने पूछा-विरजन बालाजी को कौन जयमाल पहिनायेगा।

विरजन- आप।

रानीजी- और तुम क्या करोगी?

विरजन- मैं उनके माथे पर तिलक लगाऊंगी।

रानीजी- माधवी कहां है?

विरजन (धीरे-से)- उसे न छेडों। बेचारी, अपने ध्यान में मग्न है। सुवामा को देखा तो निकट आकर उसके चरण स्पर्श किये। सुवामा ने उन्हें उठाकर हृदय में लगाया। कुछ कहना चाहती थी, परन्तु ममता से मुख न खोल सकी। रानी जी फूलों की जयमाल लेकर चली कि उसके कण्ठ में डाल दूं, किन्तु चरण थर्राये और आगे न बढ सकीं। वृजरानी चन्दन का थाल लेकर चलीं, परन्तु नेत्र-श्रावण-धन की भांति बरसने लगे। तब माधवी चली। उसके नेत्रों में प्रेम की झलक थी और मुंह पर प्रेम की लाली। अधरों पर मोहिनी मुस्कान झलक रही थी और मन प्रेमोन्माद में मग्न था। उसने बालाजी की ओर ऐसी चितवन से देखा जो अपार प्रेम से भरी हुई। तब सिर नीचा करके फूलों की जयमाला उसके गले में डाली। ललाट पर चन्दन का तिलक लगाया। लोक-संस्कार की न्यूनता, वह भी पूरी हो गयी।

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