धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
इस प्रकार जहाँ पहले वाक्य में न्याय के अनुसार दण्ड की बात कहते हैं वहीं दूसरे वाक्य में भगवान् की कृपा का स्वरूप भी प्रकट कर देते हैं। प्रभु यदि कर्मसिद्धान्त के अनुसार निर्णय करते तो वे सोचते कि इसने तो असंख्य मुनियों का अहित किया है, अनेक यज्ञ नष्ट किये हैं और उन्हें मार-मार कर खाती रही है, अत: इसे तो लंबी अवधि तक नरकवास मिलना चाहिये, जहाँ वह अपने समस्त पापों की सजा भोग सके। पर प्रभु ने उसे अपने धाम में भेज दिया क्योंकि प्रभु तो परम कृपालु हैं, कृपासिंधु हैं। भगवान् से कोई पूछता है कि आप इतनी सरलता से अपने धाम में क्यों भेज देते हैं? यह न्याय-व्यवस्था के विरुद्ध नहीं है क्या? भगवान् कहते हैं - भाई! न्यायालय में भी तो आजीवन कारावास की सजा दी जाती है जिससे अपराधी जीवनभर कारागार में ही रहता है। मैं भी इसलिए अपने धाम में भेजता हूँ क्योंकि मेरे धाम की विशेषता भी यही है कि वहाँ जानेवाला व्यक्ति फिर लौटकर आ ही नहीं सकता। यह भी आजीवन कारावास हो गया या नहीं? अब इस कारागार के आनंद के क्या कहने? वस्तुत: यह तो प्रभु का कृपागार है। किसी ने पूछा- महाराज! उस राक्षसी ने इतने अपराध किये और आपने उसे अपना धाम दे दिया यह कैसी लेन-देन है ? आपको उससे ऐसा क्या मिल गया कि बदले में आपने उसे अपना धाम दे डाला?
प्रभु ने कहा- संसार में सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्रिय वस्तु प्राण ही है। जब ताड़का ने अपने प्राण ही मुझे दे दिये तो मैंने भी अपने पास की सबसे अच्छी वस्तु उसे दे दी। उसने अपने प्राण दिये और मैंने अपना पद दे दिया, इस रूप में लेन-देन तो बराबरी की रही, इसमें मेरी कोई विशेषता नहीं है। अब ऐसी व्याख्या तो कर्मसिद्धान्त के अंतर्गत कहीं मिलेगी नहीं, क्योंकि यह तो प्रभु का कृपापर्व है। प्रभु का इसके पीछे यही संकेत है कि न्याय का अंतिम उद्देश्य भी व्यक्ति का कल्याण है और कृपा के द्वारा भी जब वही उद्देश्य पूरा हो जाय तो यह भी न्याय ही तो हुआ!
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