धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
|
0 |
मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
परशुरामजी की दृष्टि इससे सर्वथा भिन्न है। वे समझते हैं कि संसार में सबसे बुरा शब्द कृपा ही है। उनको लगता है कि इसी कृपा ने ही लोगों को मनमानी करने की छूट दे दी है। इसलिए इस कृपा को मैं अपने पास कभी नहीं आने दूँगा। परशुरामजी मानते हैं कि लोगों को दण्ड के द्वारा ही ठीक रखा जा सकता है। वे एक कठोर न्यायाधीश के रूप में सामने आते हैं। उनकी दृष्टि में अपराध करनेवाला व्यक्ति तो दण्ड का पात्र है ही, पर यदि दूसरा कोई व्यक्ति चुपचाप अपराध होते हुए देखता रहे, तो वह भी अपराधी ही है, अत: उसका भी सिर काट देना चाहिये। वे राम तो थे पर उनका परशु दण्ड देने के लिये सदैव तैयार रहता था, इसलिए वह भी उनके नाम के साथ जुड़ गया और वे परशुराम हो गये। लोग उनसे सदैव भयभीत रहते थे। भगवान् राम भी यद्यपि अपने पास धनुष रखते हैं, पर उनका नाम धनुष राम नहीं पड़ा।
जनकपुर की सभा में कृपा के बारे में परशुरामजी का मनोभाव स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है। वे लक्ष्मणजी को मारने की बात सोचकर भी जब मार नहीं पाते, तो वे बड़े दुखी हो जाते हैं और कहते हैं - आज मैं अपने आपको बदला हुआ पा रहा हूँ। कहीं मेरे हृदय में कृपा तो नहीं आ गयी?
मैंने आज तक अपने जीवन में कभी कृपा नहीं की, आज यह मुझे क्या हो गया है? लक्ष्मणजी ने उनकी यह बात सुन ली। वे भी उत्तर देने में कब चूकनेवाले थे? तुरंत कहने लगे-
क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।। 1/276/5
मुनिवर! जब आप कृपा में ही क्रोध से काँप रहे हैं, तब आपके क्रोध में कितनी ज्वाला होगी महाराज? मानो, लक्ष्मणजी के इस व्यंग्य में भी एक बड़ा सुंदर संकेत है। यही भगवान् राम और परशुराम मैं अंतर है। परशुरामजी दण्ड देते हैं। भगवान् राम भी मर्यादापुरुपोत्तम हैं और इस रूप में न्याय करते हुए वे भी दण्ड देते हैं। पर हम देखते हैं कि भगवान् राम का दण्ड भी कृपा बन जाता है और परशुरामजी की कृपा भी ज्वाला उत्पन्न कर देती है, दग्ध करने वाली बन जाती है। भगवान् राम का जन्म यद्यपि सूर्यवंश में होता है पर उनमें नाममात्र भी सूर्य की दाहकता दिखायी नहीं देती, अपितु उनके नाम के साथ तो चंद्र जुड़ा हुआ दिखायी देता है -
रामचन्द्र मुखचंद छबि।
|