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कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


उस प्रस्तर में से अहल्या प्रकट हो गयी। इसका अभिप्राय है कि बुरे व्यक्तियों की बात तो जाने दीजिये! अच्छे से अच्छे व्यक्तियों से भी जीवन में भूलें हो जाती हैं और उनसे परित्राण तो ईश्वर की कृपा से ही होता है।

विश्वामित्रजी ने भगवान् राम को आज्ञा देते समय उनसे एक मीठा विनोद भी किया। उन्होंने कहा- राम! सतयुग में एक भक्त की परीक्षा हुई थी और इस त्रेतायुग में भगवान् की परीक्षा है। तुम्हें स्मरण होगा कि जिस समय हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि क्या इस खंभे में भी तुम्हारा ईश्वर है? तो प्रह्लाद ने हाँ कहकर प्रकट कर दिया।

अब तुम्हारी कृपा की परीक्षा है, देखना है कि अब तुम पत्थर से एक भक्त प्रकट कर सकते हो अथवा नहीं? यदि तुम ऐसा कर सके तब तो तुम्हारी कृपा भी सफल हो जायेगी, अन्यथा भक्त का प्रेम ही बाजी मार ले जायेगा और सफल माना जायेगा।

रामचरितमानस में यह बात बार-बार बतायी गयी है कि व्यक्ति का कल्याण बिना कृपा के नहीं हो सकता, चाहे वह कितना भी पुरुषार्थी क्यों न हो! व्यक्ति पुरुषार्थ करते-करते थक जाता है और जब उसे पुरुषार्थ की सीमा का बोध हो जाता है, तब उसे कृपा की आवश्यकता की अनुभूति होती है। मानस में सुग्रीव के प्रसंग में यह बात एक विलक्षण रूप में हमारे सामने आती है। सुग्रीव से मित्रता करने के बाद भगवान् राम ने सुग्रीव से कहा कि मैं बालि को मारूँगा तो सुनकर सुग्रीव प्रसन्न हो गये। फिर भगवान् राम ने सुग्रीव से कहा - चलो! अब जाकर बालि को युद्ध के लिये ललकारो। सुग्रीव कह सकते थे - महाराज! जब आपने मारने की प्रतिज्ञा की है, तब आपको ही जाकर उसे चुनौती भी देनी चाहिये पर सुग्रीव चले गये। आपने विचार किया कि वे चले क्यों गये? सुग्रीव ने सोचा, बहुत अच्छा अवसर है! जीवनभर मैं बालि से हारता रहा, पर आज भगवान् राम रक्षा के लिये मेरे पीछे खड़े हुए हैं। अब यदि जाकर मैं लड़ता हूँ और जीत जाता हूँ तो इतिहास में यही लिखा जायेगा कि अंतिम लड़ाई तो सुग्रीव ने ही जीती। इसलिए सुग्रीव लड़ने के लिये चल पड़े। उनकी चुनौती सुनकर बालि बाहर निकल आया और उसने सुग्रीव पर मुक्के से प्रहार किया। सुग्रीव को यह वज की तरह लगा और वे भाग खड़े हुए --

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।। 4/7/3

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