धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
प्रभु मर्यादामय हैं। वे सोचते हैं कि ऋषि की पत्नी पर मैं अपने पाँव की धूलि कैसे डालूँ? यह तो उचित नहीं है। विश्वामित्र भगवान् राम का यह संकोच भाँप लेते हैं। उन्होंने कहा- राम! तुम यह मत सोचो कि मैं अपनी ओर से यह बात कह रहा हूँ। अपनी ओर से कहने पर मैं यह कह सकता था कि इसे कृपाभरी दृष्टि से देख लो अथवा इसके सिर पर हाथ रख दो। मैं जानता हूँ कि इससे भी अहल्या का कल्याण हो जाता, पर चरण-रज की यह प्रार्थना तो स्वयं अहल्या की है –
चरन कमल रज चाहति,
यद्यपि यह बोल नहीं रही है पर इसकी प्रार्थना मैं समझ रहा हूँ। यह चाहती है कि आप इस पर कृपा केवल अपने चरण से ही कीजिये, हाथ या दृष्टि के द्वारा नहीं। कोई पूछ सकता है - आँख या हाथ से क्यों नहीं? विश्वामित्रजी का अभिप्राय है कि मानो अहल्या यह कहना चाहती है- प्रभु! आँख से कृपा करने के लिये जब आप दृष्टि उठाकर मेरी ओर देख लेंगे, तो आपकी दृष्टि मेरे दोष और मेरे चरित्र की ओर चली जायेगी। तब हो सकता है कि यह सोचकर कि यह तो कृपा योग्य नहीं है, आप अपने नेत्र ही मूँद लें। यदि मैं हाथ से कृपा करने की प्रार्थना करूँगी, तो प्रभु आपके हाथ में धनुष-बाण देखकर मुझे यही डर लगता है कि कृपा के लिये बढ़ते आपके हाथ, कही न्याय का आश्रय लेकर मुझे दण्ड देने न लग जायँ! इसलिए प्रभु! न तो आप हाथ से कृपा करें और न ही नेत्रों से कृपा करें, आप तो बस अपने उन चरणों से कृपा करें जिनसे गंगा निकली है। बड़ी दिव्य भावना है अहल्या की! सचमुच, गंगा की कृपा तो सब पर समान रूप से होती है। आजतक उसने पापी-पुण्यात्मा, जाति-पाँति और ऊँच-नीच का कभी कोई भेद नहीं किया है। यह प्रभु के चरणों की विशेषता है। भगवान् राम ने गुरुदेव की आज्ञा मानकर अपने चरण से उस पाषाणी का स्पर्श कर दिया। गोस्वामीजी कहते हैं कि-
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
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