धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
उसने निर्णय लिया कि बल तो भगवान् ने दे दिया है, छल मैं अपनी ओर से मिला देता हूँ जीत तो होनी ही है।
इस मिलाने (जोड़ने) की बात में मुझे जबलपुर का एक पुराना संस्मरण याद आता है। मेरे एक परिचित विद्यार्थी, जो कभी पढ़ाई-लिखाई नहीं करते थे, एम.ए. की परीक्षा में पास हो गये। मुझे आश्चर्य हुआ तो मैंने पूछ दिया- अरे! कैसे पास हो गये भाई? उन्होंने कहा - मेरे पास परीक्षा में पास (सफल) होने का एक बहुत बढ़िया नुस्खा है। मेरे पूछने पर नुस्खा बताते हुए उन्होंने कहा - अकल धन नकल बराबर पास। अकल और नकल को जोड़कर उत्तीर्ण होने का यह सूत्र भले ही उनके काम आ गया हो, पर बालि के साथ युद्ध करते समय सुग्रीव, ईश्वर के बल में अपना छल मिलाने पर भी हारने लगे। भगवान् यह दृश्य देख रहे थे और वे दर्शक ही बने रहे। पर अंत में सुग्रीव को अपनी असमर्थता का भान हो गया और जब वे भीतर हृदय से भी हारने लगे तो भयभीत हो गये -
और सोचने लगे कि बड़ी भूल हो गयी, कहाँ लड़ने चला आया? हे प्रभु! अब आप ही कृपा करके मेरी रक्षा करें। बस! वह सीमा आ गयी, अपनी असमर्थता का बोध हो गया, तब -
इसका तात्पर्य है कि जीव को अपनी असमर्थता की स्थिति में ही प्रभु कृपा की आवश्यकता होती है और तब उस कृपा का अनुभव भी होता है।
रामचरितमानस में यह वर्णन आता है कि आगे चलकर सुग्रीव ने बहुत बड़ा अपराध भी किया। राज्य सत्ता पाने के बाद वे विषय भोगों में इतना डूब गये कि भगवान् के इस कार्य को, कि सीताजी का पता लगाना है, बिलकुल भूल गये। बहुत समय बीत जाने पर भी जब सुग्रीव नहीं आये तो भगवान् राम ने कहा कि जिस बाण से मैंने बालि का वध किया है, उसी बाण से सुग्रीव का भी वध कर दूँगा। लक्ष्मणजी ने सुना तो बोले- महाराज! आप क्यों कष्ट करेंगे, इस काम को तो मैं अभी कर देता हूँ। भगवान् राम लक्ष्मणजी की बात सुनकर हँसने लगे और बोले- लक्ष्मण! उसे कहीं सचमुच न मार देना! तुम वहाँ जाओ और बस थोड़ा सा भय दिखाकर उसे मेरे पास ले आओ।
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