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धर्म एवं दर्शन >> कृपा

कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


सुग्रीवजी आ गये और अपनी सफाई देते हुए जो बातें उनके मुँह से निकलीं उन्हें सुनकर प्रभु हँसने लगे। सुग्रीवजी ने कहा- महाराज! विषय इतने प्रबल हैं कि इनके वश में देवता और मुनि तक आ जाते हैं, मैं तो एक बंदर हूँ प्रभु! -

नारि नयन सर जाहि न लागा।
घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।
लोभ पाँस जेहि गर न बँधाया।
सो नर तुम्ह समान रघुराया।। 4/20/4,5


काम, क्रोध और लोभ आदि को जो जीत सके वह तो आपके समान ही है। प्रभु कुछ नहीं बोले, सुग्रीव की ओर देखकर हँसने लगे। मानो, वे पूछ रहे हों - सुग्रीव! तुम तो मेरे मित्र हो और मेरा मित्र तो मेरे समान ही होगा या नहीं? पर सुग्रीवजी कहने लगे- हाँ प्रभु! काम, क्रोध और लोभ को तो जीतना ही चाहिये। मैं भी चाहता था, जीत लूँ। पर मुझे यह भी ज्ञात है कि यह कार्य तो अपने पुरुषार्थ से होता नहीं-

यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई।। 4/20/6


इन तीनों पर तो बस आपकी कृपा से ही विजय प्राप्त की जा सकती है। मानो सुग्रीवजी का संकेत था कि महाराज! यदि आपने कृपा की होती तो मैंने भी इन्हें जीत लिया होता, पर यदि नहीं जीत पाया तो इसका अर्थ है कि आपने ही कृपा नहीं की! इसे सुनकर प्रभु को क्रोधित होना चाहिये था। वे कह सकते थे कि भूल तुमने की और इसका दोषारोपण मुझ पर कर रहे हो? पर प्रभु खूब हँसे और सुग्रीव को गले से लगाते हुए बोले- तुम तो मुझे भरत के समान प्रिय हो –

तब रघुपति बोले मुसुकाई।
तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।। 4/20/7

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