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धर्म एवं दर्शन >> क्रोध

क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


आइये! पहले हम इस पर एक दृष्टि डालने की चेष्टा करें कि क्रोध किन-किन रूपों में व्यक्ति के जीवन में आता है और उसके क्या-क्या परिणाम होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि लोग किसी महात्मा की प्रशंसा करते हुए कह देते हैं कि 'मैंने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा। उन्होंने नहीं देखा होगा यह ठीक हो सकता है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि महात्माजी को कभी क्रोध आता ही नहीं है। मुझे भी महात्माओं के निकट रहने का सौभाग्य मिला है, पर ऐसा कोई महात्मा नहीं मिला कि जिसे क्रोध न आता हो। मेरी प्रार्थना है कि मेरी इस बात का वे सब सज्जन बुरा नहीं मानेंगे जो अपने गुरुओं की प्रशंसा में इस प्रकार के शब्द कहने के अभ्यस्त हों। क्योंकि, क्रोध न आये, ऐसा तो संभव ही नहीं है, पर क्रोध के स्वरूप का दर्शन हमें शंकर जी के चरित्र में प्राप्त होता है।

'मानस' में यह प्रसंग आपने पढ़ा होगा, जिसमें वर्णन आता है कि भुशुण्डिजी शिव-मंत्र की दीक्षा लेकर उज्जैन में निवास करते हैं और भगवान् महाकाल की पूजा-उपासना और मंत्रजप करते हैं। उनकी प्रकृति में एक दोष भी आ गया था कि वे भगवान् शंकर की तो उपासना करते थे पर साथ-साथ वे भगवान् राम और भगवान् विष्णु की निन्दा भी अवश्य करते थे। इसके पीछे उनका एक तर्क था जो उनके पिछले अनुभव से जुड़ा हुआ था। भुशुण्डिजी का जन्म अयोध्या में हुआ था और जब वहाँ एक बार अकाल पड़ गया तो वे भूखों मरने लगे और दुखी होकर, वे अयोध्या को छोड्कर उज्जैन आ गये। उज्जैन में उस समय सुकाल की स्थिति थी। इससे भुशुण्डिजी की यह धारणा बन गयी कि 'वह देवता किस काम का जहाँ भूखों मरना पड़े? वे सोचने लगे कि भगवान् राम से तो भगवान् शंकर ही अच्छे हैं, क्योंकि इनकी नगरी में सुकाल है, और खाने-पीने के लिये प्रचुर अन्न-जल मिलता है। भुशुण्डिजी का यह निर्णय बिल्कुल ही बचकाना है, क्योंकि इस तरह तो प्रत्येक मौसम में व्यक्ति को इष्ट बदलते रहना पड़ेगा। गर्मी ज्यादा पड़ने लगे तो ठण्डा स्थान प्रदान करने वाला इष्ट ढूँढना पड़ेगा। सर्दी ज्यादा लगने लगे, या फिर वर्षा ज्यादा हो जाय, तो नित्य नये-नये इष्टों की खोज में ही व्यक्ति लगा रहेगा। इसे हम सुख-सुविधा की खोज तो मान सकते हैं, पर इस तरह उपासना और आराधना तो नहीं हो सकती। भुशुण्डिजी के गुरुदेव बड़े ही संत प्रकृति के थे। वे बार-बार भुशुण्डिजी को समझाते थे कि 'तुम अपने इष्ट भगवान् शिव की पूजा करो, भक्ति करो! पर भगवान् राम की निंदा मत करो, क्योंकि निंदा करना दोष है। वे उन्हें यह भी स्मरण दिलाते थे शंकरजी स्वयं भगवान् राम का भजन करते हैं। पर इन बातों को सुनकर भुशुण्डिजी को बड़ा क्रोध आता था। वे सोचते थे - 'बड़े अद्भुत गुरुजी मिल गये, जो रामजी को भगवान् शंकर से बड़ा बता रहे हैं!' यद्यपि बाहर, भुशुण्डिजी अपने गुरुदेव से प्रकट रूप में कुछ नहीं कहते थे, पर भीतर-ही-भीतर वे यही मानते थे कि मेरी जैसी अनन्यनिष्ठा तो मेरे गुरुजी में भी नहीं है।

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