धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
राम प्रेम मूरति तनु आही
श्री देवर्षि नारद ने ‘प्रेमैव कार्यं प्रेमैव कार्यम्’ कहकर जीव का एकमात्र कर्तव्य प्रेम ही है, ऐसा भक्तिसूत्र में निर्देश किया है किन्तु प्रश्न होता है कि प्रेम है क्या? विशेष रूप से इस युग में जब ज्ञान, भक्ति और धर्म के नाम पर अनाचार का बोलबाला है, मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति उच्छृङ्खलता की ओर है और यह उच्छृङ्खलता न केवल भौतिकवादियों में, अपितु आध्यात्मिक कहे जाने वाले लोगों में भी व्याप्त है, ‘बड़ो नेम ते प्रेम’ कहकर प्रेम के नाम पर नित्य-नैमित्तिक कर्मो का त्याग और ‘जाके प्रिय न राम बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।’ कह कर गुरुजनों का विरोध किया जाता है।
भविष्य-द्रष्टा महाकवि अपनी तत्कालीन परिस्थितियों से व्यथित हो गये। उन्होंने देखा - प्रेम की आड़ में किस प्रकार कुछ लोगों के द्वारा जनता मार्गभ्रष्ट हो रही है। और तब उन्होंने हमारे समक्ष प्रेम का एक ऐसा दिव्य आदर्श उपस्थित किया, जिसमें उन्होंने यह पूर्ण रीति से सिद्ध कर दिया कि प्रेम में नियम का त्याग अवश्यम्भावी नहीं। नेम का त्याग प्रेम में हो जाय यह सम्भव है पर यह कोई आवश्यक नियम नहीं। और हमारे लिए यही प्रेमादर्श अनुकरणीय भी है। प्रेम के नाम पर मन अनर्गल होकर यत्रतत्र न बहने लगे, इसके लिए हमें सदा जागरूक रहना चाहिए।
उन्हीं की लेखनी से श्री भरत जी का दिव्य प्रेमादर्श व्यक्त हुआ और यह कहता हुआ हमारे हृदय को अपनी ओर आकृष्ट करने लगा-
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम विषय ब्रत आचरत को।।
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी सठन्हि हठि राम सनमुख करत को।।
अन्तिम पंक्ति में कलिकाल की कठिनता की ओर संकेत किया गया। पर उसमें यही मार्ग निरापद है। आइये, हम भी उस प्रेमामृत के बिन्दुओं का पान करने की चेष्टा करें, जिसे भक्त कवि की लेखनी ने हमारे लिए सुलभ कर दिया है।
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