धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
1 पाठकों को प्रिय |
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
( १ )
लोकलोचन सुखदाता भगवान श्री राघवेन्द्र ने भ्राताओं तथा सखा परिवार के साथ सरयू के समुज्जवल तट पर कन्दुक-क्रीड़ा का संकल्प किया। खेल में दो दलों का होना स्वाभाविक ही था। एक दल का नेतृत्व कर रहे थे स्वयं राघव। दूसरे दल का नेतृत्व किसे सौंपा जाय, यह एक समस्या थी। श्रीलक्ष्मण जी से तो यह आशा की नहीं जा सकती। खेल में भी राम के विरुद्ध होना उन्हें असह्य था। यह भी बहुत उच्चकोटि का प्रेम है इसमें सन्देह नहीं, किन्तु फिर क्रीड़ा भी कैसे हो।
श्रीलक्ष्मण जी उतावले हो रहे थे। क्रीड़ा की चुनावपद्धति की अवहेलना कर वे स्वयं ही श्री राघवेन्द्र के निकट जाकर खड़े हो गये। दर्शकों ने देखा और श्री लक्ष्मण जी के प्रेम को देख वे आनन्दविभोर हो गये। किन्तु श्री भरत जी प्रभु के चरण कमलों की ओर दृष्टि किये शान्त खड़े थे। निश्चित रूप से दर्शकों को उनके प्रेममय उच्च भावों का पता लगाना कठिन था। श्री लक्ष्मण जी का प्रेम स्पष्ट था। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे दिखावा करते हों। पर वे सदा ही रामप्रेम में ऐसे उन्मत्त रहते थे कि साधारण व्यक्ति भी उनके प्रेम को देख सकता था। किन्तु श्रीभरत जी स्वभाव से ही बड़े संकोची और गम्भीर थे। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य तो राम-पद प्रेम ही था। फिर भी वे अपने हृद्गतभावों को सदा छिपाये रखते थे, जिसे समझ सकना साधारण व्यक्तियों की तो कथा ही क्या, बड़े-बड़ों के लिए भी कठिन था। उनकी विचार-सरणी सर्वथा अलौकिक थी। वे क्रीड़ास्थल पर खड़े-खड़े मानो यही सोच रहे थे कि मैं तो प्रभु की क्रीड़ा का एक उपकरण मात्र हूँ। वे चाहे जैसा उपयोग करें, मुझे इससे क्या? मुझे तो उनकी प्रसन्नता ही अभीष्ट है। और तब हम देखते हैं उनको प्रतिद्वन्द्वी दल का नेतृत्व करते हुए।
|