लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

महात्मा गाँधी की आत्मकथा


डरबन पहुँचने पर मैंने आदमियो की माँग की। बड़ी टुकड़ी की आवश्यकता नहीं थी। हम चौबीस आदमी तैयार हुए। उनमें मेरे सिवा चार गुजराती थे, बाकी मद्रास प्रान्त के गिरमिट मुक्त हिन्दुस्तानी थे और एक पठान था।

स्वाभिमान की रक्षा के लिए और अधिक सुविधा के साथ काम कर सकने के लिए तथा वैसी प्रथा होने के कारण चिकित्सा विभाग के मुख्य पदाधिकारी ने मुझे 'सार्जेट मेंजर' का मुद्दती पद दिया और मेरी पसन्द के अन्य तीन साथियो को 'सार्जेट' का और एक को 'कार्पोरल' का पद दिया। वरदी भी सरकार की ओर से ही मिली। मैं यह कह सकता हूँ कि इस टुकड़ी ने छह सप्ताह तक सतत सेवा की।

'विद्रोह' के स्थान पर पहुँचकर मैंने देखा कि वहाँ विद्रोह जैसी कोई चीज नहीं थी। कोई विरोध करता हुआ भी नजर नहीं आता था। विद्रोह मानने का कारण यह था कि एक जुलू सरदार ने जुलू लोगों पर लगाया गया नया कर न देने की उन्हें सलाह दी थी और कर की वसूली के लिए गये हुए एक सार्जेट को उसने कत्ल कर डाला था। सो जो भी हो, मेरा हृदय तो जुलू लोगों की तरफ था औऱ केन्द्र पर पहुँचने के बाद जब हमारे हिस्से मुख्यतः जुलू घायलो की शुश्रूषा करने का काम आया, तो मैं बहुत खुश हुआ। वहाँ के डॉक्टर अधिकारी ने हमारा स्वागत किया। उसने कहा, 'गोरो में से कोई इन घायलो की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए तैयार नहीं होता। मैं अकेला किस किस की सेवा करुँ? इनके घाव सड़ रहे है। अब आप आये है, इसे मैं इन निर्दोष लोगों पर ईश्वर की कृपा ही समझता हूँ। ' यह कहकर उसने मुझे पट्टियाँ, जंतुनाशक पानी आदि सामान दिया और उन बीमारो के पास ले गया। बीमार हमे देखकर खुश हो गये। गोरे सिपाही जालियो में से झाँक झाँककर हमे घाव साफ करने से रोकने का प्रयत्न करते, हमारे न मानने पर खीझते और जुलूओ के बारे में जिन गंदे शब्दों का उपयोग करते उनसे तो कान के कीड़े झड़ जाते थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book