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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मेरा डेरा मालवीयजी में अपने ही कमरे में रखा था। उनकी सादगी की झाँकी काशी विश्वविद्यालय के शिलान्यास के समय मैं कर चुका था। लेकिन इस बार तो उन्होंने मुझे अपने कमरे में ही स्थान दिया था। इससे मैं उनकी सारी दिनचर्या देख सका और मुझे सानन्द आश्चर्य हुआ। उनका कमरा क्या था, गरीबो की धर्मशाला थी। उसमें कही रास्ता नहीं रहने दिया गया था। जहाँ-तहाँ लोग पड़े ही मिलते थे। वहाँ न एकान्त था। चाहे जो आदमी चाहे जिस समय आता था औऱ उनका चाहे जितना समय ले लेता था। इस कमरे के एक कोने में मेरा दरबार अर्थात खटिया थी।

किन्तु मुझे इस प्रकरण में मालवीयजी की रहन-सहन का वर्णन नहीं करना है। अतएव मैं अपने विषय पर आता हूँ।

इस स्थिति में मालवीयजी के साथ रोज मेरी बातचीत होती थी। वे मुझे सबका पक्ष बड़ा भाई जैसे छोटे को समझाता है वैसे प्रेम से समझाते थे। सुधार-सम्बन्धी प्रस्ताव में भाग लेना मुझे धर्मरूप प्रतीत हुआ। पंजाब विषयक कांग्रेस की रिपोर्ट की जिम्मेदारी में मेरा हिस्सा था। पंजाब के विषय में सरकार से काम लेना था। खिलाफत का प्रश्न तो था ही। मैंने यह भी माना कि मांटेग्यू हिन्दुस्तान के साथ विश्वासघात नहीं करने देगे। कैदियो की और उनमें भी अलीभाईयो की रिहाई को मैंने शुभ चिह्न माना था। अतएव मुझे लगा कि सुधारो को स्वीकार करने का प्रस्ताव पास होना चाहिये। चितरंजन दास का ढृढ मत था कि सुधारो को बिल्कुल असंतोषजनक और अधूरे मान कर उनकी उपेक्षा करनी चाहिये। लोकमान्य कुछ तटस्थ थे। किन्तु देशबन्धु जिस प्रस्ताव को पसन्द करे, उसके पक्ष में अपना वजन डालने का उन्होंने निश्चय कर लिया था।

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