| जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
 ऐसे पुराने अनुभवी और कसे हुए सर्वमान्य लोकनायको के साथ अपना मतभेद मुझे स्वयं असह्य मालूम हुआ। दूसरी ओर मेरा अन्तर्नाद स्पष्ट था मैंने कांग्रेस की बैठक में से भागने का प्रयत्न किया। पं. मोतीलाल नेहरू और मालवीयजी को मैंने यह सुझाया कि मुझे अनुपस्थित रहने देने से सब काम बन जायेगा औऱ मैं महान नेताओं के साथ मतभेद प्रकट करने के संकट से बच जाऊँगा। 
 
 यह सुझाव इन दोनों बुजुर्गो के गले न उतरा। जब बात लाला हरकिसनलाल के कान तक पहुँची तो उन्होंने कहा, 'यह हरगिज न होगा। इससे पंजाबियो को भारी आधात पहुँचेगा।' 
 
 मैंने लोकमान्य और देशबन्धु के साथ विचार-विमर्श किया। मि. जिन्ना से मिला। किसी तरह कोई रास्ता निकलता न था। मैंने अपनी वेदना मालवीयजी के सामने रखी, 'समझौते के कोई लक्षण मुझे दिखाई नहीं देते। यदि मुझे अपना प्रस्ताव रखाना ही पड़ा, तो अन्त में मत तो लिये ही जायेगे। पर यहाँ मत ले सकने की कोई व्यवस्था मैं नहीं देख रहा हूँ। आज तक हमने भरी सभा में हाथ उठवाये है। हाथ उठाते समय दर्शको और प्रतिनिधियों के बीच कोई भेद नहीं रहता। ऐसी विशाल सभा में मत गिनने की कोई व्यवस्था हमारे पास नहीं होती। अतएव मुझे अपने प्रस्ताव पर मत लिवाने हो, तो भी इसकी सुविधा नहीं है।' 
 
 लाला हरकिसनलाल ने यह सुविधा संतोषजनक रीति से कर देने का जिम्मा लिया। उन्होंने कहा, 'मत लेने के दिन दर्शको को नहीं आने देंगे। केवल प्रतिनिधि ही आयेगे औऱ वहाँ मतो की गिनती करा देना मेरा काम होगा। पर आप कांग्रेस की बैठक से अनुपस्थित तो रह ही नहीं सकते।' 
 
 आखिर मैं हारा। 
 			
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