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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मुझे अपने विचारो पर काबू रखने की आदत सहज ही पड़ गयी। मैं अपने आपको यह प्रमाण-पत्र दे सकता हूँ कि मेरी जबान या कलम से बिना तौले शायद ही कोई शब्द कभी निकलता हैं। याद नहीं पड़ती कि अपने किसी भाषण या लेख के किसी अंश के लिए मुझे कभी शरमाना या पछताना पड़ा हो। मैं अनेक संकटों से बच गया हूँ और मुझे अपना बहुत-सा समय बचा लेने का लाभ मिला हैं।

अनुभव ने मुझे यह भी सिखाया है कि सत्य के प्रत्येक पुजारी के लिए मौन का सेवन इष्ट हैं। मनुष्य जाने-अनजाने भी प्रायः अतिशयोक्ति करता हैं, अथवा जो कहने योग्य हैं उसे छिपाता हैं, या दूसरे ढंग से कहता हैं। ऐसे संकटों से बचने के लिए भी मितभाषी होना आवश्यक हैं। कम बोलने वाला बिना विचारे नहीं बोलेगा ; वह अपने प्रत्येक शब्द को तौलेगा। अक्सर मनुष्य बोलने के लिए अधीर हो जाता हैं। 'मैं भी बोलना चाहता हूँ,' इस आशय की चिट्ठी किस सभापति को नहीं मिलती होगी? फिस उसे जो समय दिया जाता हैं वह उसके लिए पर्याप्त नहीं होता। वह अधिक बोलने देने की माँग करता है और अन्त में बिना अनुमति के भी बोलता रहता हैं। इन सब लोगों के बोलने से दुनिया को लाभ होता हैं, ऐसा क्वचित ही पाया जाता हैं। पर उतने समय की बरबादी तो स्पष्ट ही देखी जा सकती हैं। इसलिए यद्यपि आरम्भ में मुझे अपनी लज्जाशीलता दुःख देती थी, लेकिन आज उसके स्मरण से मुझे आनन्द होता हैं। यह लज्जाशीलता मेरी ढ़ाल थी। उससे मुझे परिपक्व बनने का लाभ मिला। सत्य की अपनी पूजा में मुझे उससे सहायता मिली।

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