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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

असत्यरूपी विष


चालिस साल पहने विलायत जाने वाले हिन्दुस्तानी विद्यार्थी आज की तुलना में कम थे। स्वयं विवाहित होने पर भी अपने को कुँआरा बताने का उनमें रिवाज-सा पड़ गया था। उस देश में स्कूल या कॉलेज में पढ़ने वाले कोई विद्यार्थी विवाहित नहीं होते। विवाहित के लिए विद्यार्थी जीवन नहीं होता। हमारे यहाँ तो प्राचीन काल में विद्यार्थी ब्रह्मचारी ही कहलाता था। बाल-विवाह की प्रथा तो इस जमाने में ही पड़ी हैं। कह सकते हैं कि विलायत में बाल-विवाह जैसी कोई हैं ही नहीं। इसलिए भारत के युवकों को यह स्वीकार करते हुए शरम मालूम होती हैं कि वे विवाहित हैं। विवाह की बात छिपाने का दूसरा एक कारण यह हैं कि अगर विवाह प्रकट हो जाये, तो जिस कुटुम्ब में रहते हैं उसकी जवान लड़कियों के साथ घूमने-फिरने और हँसी-मजाक करने का मौका नहीं मिलता। यह हँसी-मजाक अधिकतर निर्दोष होता हैं। माता-पिता इस तरह की मित्रता पसन्द भी करते हैं। वहाँ युवक और युवतियों के बीच ऐसे सहवास की आवश्यकता भी मानी जाती हैं, क्योंकि वहाँ तो प्रत्येक युवक को अपनी सहधर्मचारिणी स्वयं खोज लेनी होती हैं। अतएव विलायत में जो सम्बन्ध स्वाभाविक माना जाता हैं, उसे हिन्दुस्तान का नवयुवक विलायत पहुँचते ही जोडना शुरू कर दे तो परिणाम भयंकर ही होगा। कई बार ऐसे परिणाम प्रकट भी हुए हैं। फिर भी हमारे नवयुवक इस मोहिनी माया में फँस पड़े थे। हमारे नवयुवको ने उस योहब्वत के लिए असत्याचरण पसन्द किया, जो अंग्रेजो की दृष्टि से कितनी ही निर्दोष होते हुए भी हमारे लिए त्याज्य हैं। इस फंदे में मैं भी फँस गया। पाँच-छह साल से विवाहित और एक लड़के का बाप होते हुए भी मैंने अपने आपको कुँआरा बताने में संकोच नहीं किया ! पर इसका स्वाद मैंने थोड़ा ही चखा। मेरे शरमीले स्वभाव ने, मेरे मौन ने मुझे बहुत कुछ बचा लिया। जब मैं बोल ही न पाता था, तो कौन लड़की ठाली बैठी थी जो मुझसे बात करती? मेरे साथ घूमने के लिए भी शायद ही कोई लड़की निकलती।

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