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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैं जितना शरमीला था उतना ही डरपोक भी था। वेंटनर में जिस परिवार में मैं रहता था, वैसे परिवार में घर की बेटी हो तो वह, सभ्यता के विचार से ही सही, मेरे समान विदेशी को घूमने ले जाती। सभ्यता के इस विचार से प्रेरित होकर इस घर की मालकिन की लड़की मुझे वेंटनर के आसपास की सुन्दर पहाड़ियों पर ले गयी। वैसे मेरी कुछ धीमी नहीं थी, पर उसकी चाल मुझ से तेज थी। इसलिए मुझे उसके पीछे घसिटना पड़ा। वह तो रास्तेभर बातो के फव्वारे उड़ाती चली, जब कि मेरे मुँह से कभी 'हाँ' या कभी 'ना' की आवाज भर निकती थी। बहुत हुआ तो 'कितना सुन्दर हैं!' कह देता। इससे ज्यादा बोल न पाता। वह तो हवा में उड़ती जाती और मैं यह सोचता रहता कि घर कब पहुँचूंगा। फिर भी यह करने की हिम्मत न पड़ती कि 'चलो, अब लौट चले।' इतने में हम एक पहाड़ की चोटी पर जा खड़े हुए। पर अप उतरा कैसे जाये? अपने ऊँची एजीवाले बूटो के बावजूद बीस-पचीस साल की वह रमणी बिजली की तरह ऊपर से नीचे उतर गयी, जब कि मैं शरमिंदा होकर अभी यही सोच रहा था कि ढाल कैसे उतरा जाये ! वह नीचें खड़ी हँसती हैं, मुझे हिम्मत बँधाती हैं, ऊपर आकर हाथ का सहारा देकर नीचे ले जाने को कहती हैं ! मैं इतना पस्तहिम्मत तो कैसे बनता? मुश्किल से पैर जमाता हुआ, कहीं कुछ बैठता हुआ, मैं नीचे उतरा। उसने मजाक में 'शा..बा..श!' कहकर मुझ शरमाये हुए को और अधिक शरमिंदा किया। इस तरह के मजाक से मुझे शरमिंदा करने का उसे हक था।

लेकिन हर जगह मैं इस तरह कैसे बच पाता? ईश्वर मेरे अन्दर से असत्य की विष निकालना चाहता था। वेंटनर की तरह ब्राइटन भी समुद्र किनारे हवाखोरी का मुकाम हैं। एक बार मैं वहाँ गया था। जिस होटल में मैं ठहरा था, उसमें साधारण खुशहाल स्थिति की एक विधवा आकर टीकी थी। यह मेरा पहले वर्ष का समय था, वेंटनर के पहले का। यहाँ सूची में खाने की सभी चीजों के नाम फ्रेंच भाषा में लिखे थे। मैं उन्हें समझता न था। मैं बुढियावाली मेंज पर ही बैठा था। बुढिया ने देखा कि मैं अजनबी हूँ और कुछ परेशानी में भी हूँ। उसने बातचीत शुरू की, 'तुम अजनबी से मालूम होते हो। किसी परेशानी में भी हो। अभी तक कुछ खाने को भी नहीं मँगाया हैं।'

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