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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैं भोजन के पदार्थों की सूची पढ़ रहा था और परोसने वाले से पूछने की तैयारी कर रहा था। इसलिए मैंने उस भद्र महिला को धन्यवाद दिया और कहा, 'यह सूची मेरी समझ में नहीं आ रही हैं। मैं अन्नाहारी हूँ। इसलिए यह जानना जरुरी हैं कि इनमे से कौन सी चीजे निर्दोष हैं।'

उस महिला ने कहा, 'तो लो, मैं तुम्हारी मदद करती हूँ और सूची समझा देती हूँ। तुम्हारे खाने लायक चीजें मैं तुम्हें बता सकूँगी।'

मैंने धन्यवाद पूर्वक उसकी सहायता स्वीकार की। यहाँ से हमारा जो सम्बन्ध जुड़ा सो मेरे विलायत में रहने तक और उसके बाद भी बरसों तक बना रहा। उसने मुझे लन्दन का अपना पता दिया और हर रविवार को अपने घर भोजन के लिए आने को न्योता। वह दूसरे अवसरों पर भी मुझे अपने यहाँ बुलाती थी, प्रयत्न करके मेरा शरमीलापन छुड़ाती थी, जवान स्त्रियों से जान-पहचान कराती थी और उनसे बातचीक करने को ललचाती थी। उसके घर रहने वाली एर स्त्री के साथ बहुत बाते करवाती थी। कभी कभी हमें अकेला भी छोड़ देती थी।

आरम्भ में मुझे यह सब बहुत कठिन लगा। बात करना सूझता न था। विनोद भी क्या किया जाये ! पर वह बुढ़िया मुझे प्रविण बनाती रही। मैं तालीम पाने लगा। हर रविवार की राह देखने लगा। उस स्त्री के साथ बाते करना भी मुझे अच्छा लगने लगा।

बुढिया भी मुझे लुभाती जाती। उसे इस संग में रस आने लगा। उसने तो हम दोनो का हित ही चाहा होगा।

अब मैं क्या करूँ? सोचा, 'क्या ही अच्छा होता, अगर मैं इस भद्र महिला से अपने विवाह की बात कह देता? उस दशा में क्या वह चाहती कि किसी के साथ मेरा ब्याह हो? अब भी देर नहीं हुई हैं। मैं सच कह दूँ, तो अधिक संकट से बच जाउँगा।' यह सोचकर मैंने उसे एक पत्र लिखा। अपनी स्मृति के आधार पर नीचे उसका सार देता हूँ:

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