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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


'जब से हम ब्राइटन में मिले, आप मुझ पर प्रेम रखती रही हैं। माँ जिस तरह अपने बटे की चिन्ती रखती हैं, उसी तरह आप मेरी चिन्ता रखती हैं। आप तो यह भी मानती हैं कि मुझे ब्याह करना चाहिये, और इसी ख्याल से आप मेरा परिचय युवतियों से कराती हैं। ऐसे सम्बन्ध के अधिक आगे बढ़ने से पहले ही मुझे आपसे यह कहना चाहिये कि मैं आपके प्रेम के योग्य नहीँ हूँ। मैं आपके घर आने लगा तभी मुझे आप से यह कह देना चाहिये था कि मैं विवाहित हूँ। मैं जानता हूँ कि हिन्दुस्तान के जो विद्यार्थी विवाहित होते हैं, वे इस देश में अपने ब्याह की बात प्रकट नहीं करते। इससे मैंने भी उस रिवाज का अनुकरण किया। पर अब मैं देखता हूँ कि मुझे अपने विवाह की बात बिल्कुल छिपानी नहीं चाहियें थी। मुझे साथ में यह भी कह देना चाहिये कि मेरा ब्याह बचपन में हुआ हैं और मेरे एक लड़का भी हैं। आपसे इस बात को छिपाने का अब मुझे बहुत दुःख हैं, पर अब भगवान में सच कह देने की हिम्मत दी हैं, इससे मुझे आनन्द होता हैं। क्या आप मुझे माफ करेंगी? जिस बहन के साथ आपने मेरा परिचय कराया हैं, उसके साथ मैंने कोई अनुचित छूट नहीं ली, इसका विश्वास मैं आपको दिलाता हूँ। मुझे इस बात का पूरा-पूरा ख्याल हैं कि मुझे ऐसी छूट नहीं लेनी चाहिये। पर आप तो स्वाभाविक रुप से यह चाहती हैं कि किसी के साथ मेरा सम्बन्ध जुड़ जाये। आपके मन में यह बात आगे न बढे, इसके लिए भी मुझे आपके सामने सत्य प्रकट कर देना चाहिये।

'यदि इस पत्र के मिलने पर आप मुझे अपने यहाँ आने के लिए अयोग्य समझेंगी, तो मुझे जरा भी बुरा नहीं लगेगा। आपकी ममता के लिए तो मैं आपका चिरऋणी बन चुका हूँ। मुझे स्वीकार करना चाहिये कि अगर आप मेरा त्याग न करेंगी तो मुझे खुशी होगी। यदि अब भी मुझे अपने घर आने योग्य मानेगी तो उसे मैं आपके प्रेम की एक नयी निशानी समझूँगा और उस प्रेम के योग्य बनने का सदा प्रयत्न करता रहूँगा। '

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