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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


मदनसिंह– भला, वह पापी कभी हमलोगों की भी चर्चा करता है या बिल्कुल मरा समझ लिया? क्या यहां न आने की कसम खा ली है? क्या यहां हमलोग मर जाएंगे, तभी आएगा? अगर उसकी यही इच्छा है, तो हमलोग कहीं चले जाएं। अपना घर संभाले। सुनता हूं, वहां मकान बनवा रहा है। वह तो वहां रहेगा? और यहां कौन रहेगा? वह मकान किसके लिए छोड़े देता है?

पद्मसिंह– जी नहीं, मकान-वकान कहीं नहीं बनवाता, यह आपसे किसी ने झूठ कह दिया। हां, चूने की कल खड़ी कर ली है और यह भी मालूम हुआ है कि नदी पार थोड़ी-सी जमीन भी लेना चाहता है।

मदनसिंह– तो उससे कह देना, पहले आकर इस घर में आग लगा जाए, तब वहां जगह-जमीन ले।

पद्मसिंह– यह आप क्या कहते हैं, वह केवल आपलोगों की अप्रसन्नता के भय से नहीं आता। आज उसे मालूम हो जाए कि आपने उसे क्षमा कर दिया, तो सिर के बल दौड़ा आए। मेरे पास आता है, तो घंटों आप ही की बातें करता रहता है। आपकी इच्छा हो, तो कल ही चला आए।

मदनसिंह– नहीं, मैं उसे बुलाता नहीं। हम उसके कौन होते है, जो यहां आएगा? लेकिन यहां आए तो कह देना, जरा पीठ मजबूत कर रखे। उसे देखते ही मेरे सिर पर शैतान सवार हो जाएगा और मैं डंडा लेकर पिल पड़ूंगा। मूर्ख मुझसे रूठने चला है। तब नहीं रूठा था, जब पूजा के समय पोथी पर लार टपकाता था, खाने की थाली के पास पेशाब करता था। उसके मारे कपड़े साफ न रहने पाते थे, उजले कपड़ों को तरस के रह जाता था। मुझे साफ कपड़े पहने देखना था, तो बदन से धूल-मिट्टी लपेटे आकर सिर पर सवार हो जाता। तब क्यों नहीं रूठा था? आज रूठने चला है। अब की पाऊं तो ऐसी कनेठी दूं कि छठी का दूध याद आ जाएगा।

दोनों भाई घर गए। भामा बैठी गाय को भूसा खिला रही थी और सदन की दोनों बहनें खाना पकाती थीं। भामा देवर को देखते ही खड़ी हो गई और बोली– भला, तुम्हारे दर्शन तो हुए। चार पग पर रहते हो और इतना भी नहीं होता कि महीने में एक बार तो जाकर देख आए– घर वाले मरे कि जीते हैं। कहो, कुशल से तो रहे?

पद्मसिंह– हां, सब तुम्हारा आशीर्वाद है। कहो, खाना क्या बन रहा है? मुझे इस वक्त खीर, हलुवा और मलाई खिलाओ, तो वह सुख-संवाद सुनाऊं कि फड़क जाओ। पोता मुबारक हो।

भामा के मलिन मुख पर आनंद की लालिमा छा गई और आंखों में पुतलियां पुष्प के समान खिल उठीं। बोली– चलो, घी-शक्कर के मटके में डूबा दूं, जितना खाते बने, खाओ।

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