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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

हरे! तुम ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण लोकों के हितैषी हो। अत: अब मेरी आज्ञा पाकर जगत् में सब लोगों के लिये मुक्तिदाता बनो। मेरा दर्शन होनेपर जो फल प्राप्त होता है वही तुम्हारा दर्शन होनेपर भी होगा। मेरी यह बात सत्य है, सत्य है इसमें संशय के लिये स्थान नहीं है। मेरे हृदय में विष्णु हैं और विष्णु के हृदय में मैं हूँ। जो इन दोनों में अन्तर नहीं समझता, वही मुझे विशेष प्रिय है। श्रीहरि मेरे बायें अंग से प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा का दाहिने अंग से प्राकट्य हुआ है और महाप्रलयकारी विश्वात्मा रुद्र मेरे हृदय से प्रादुर्भूत होंगे।

मूलीभूतं सदोक्तं च सत्यज्ञानमनन्तकम्।

(शि० पु० रु० सं० ९। ४०)


ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम्।।
उभयोरन्तरं यो वै न जानाति मतो मम।

(शि० पु० रु० सं० ९। ५५-५६)

विष्णो! मैं ही सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले रज आदि त्रिविध गुणों द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रनाम से प्रसिद्ध हो तीन रूपों में पृथक्-पृथक् प्रकट होता हूँ। साक्षात् शिव गुणों से भिन्न हैं। वे प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं- अद्वितीय, नित्य, अनन्त, पूर्ण एवं निरंजन परब्रह्म परमात्मा हैं। तीनों लोकों का पालन करनेवाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्त्वगुण धारण करते हैं त्रिलोकी का संहार करनेवाले रुद्रदेव भीतर सत्त्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवन की सृष्टि करने-वाले ब्रह्माजी बाहर और भीतर से भी रजोगुणी ही हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र - इन तीन देवताओं में गुण हैं परंतु शिव गुणातीत माने गये हैं। विष्णो! तुम मेरी आज्ञा से इन सृष्टिकर्ता पितामह का प्रसन्नता-पूर्वक पालन करो; ऐसा करने से तीनों लोकों में पूजनीय होओगे।

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