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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय १०

श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष-दान का अधिकार दे शिव का अन्तर्धान होना

परमेश्वर शिव बोले- उत्तम व्रत का पालन करनेवाले हरे! विष्णो! अब तुम मेरी दूसरी आज्ञा सुनो। उसका पालन करने से तुम सदा समस्त लोकों में माननीय और पूजनीय बने रहोगे। ब्रह्माजी के द्वारा रचे गये लोक में जब कोई दुःख या संकट उत्पन्न हो, तब तुम उन सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने के लिये सदा तत्पर रहना। तुम्हारे सम्पूर्ण दुस्सह कार्यों में मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। तुम्हारे जो दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रु होंगे, उन सबको मैं मार गिराऊँगा। हरे! तुम नाना प्रकार के अवतार धारण करके लोक में अपनी उत्तम कीर्ति का विस्तार करो और सबके उद्धार के लिये तत्पर रहो। तुम रुद्र के ध्येय हो और रुद्र तुम्हारे ध्येय हैं। तुम में और रुद्र में कुछ भी अन्तर नहीं है।  

रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवद्ध्येयो हरस्तथा।
युवयोरन्तरं नैव तव रुद्रस्य किंचन।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १०। ६)

जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर तुम्हारी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा। पुरुषोत्तम विष्णो! तुमसे द्वेष करने के कारण मेरी आज्ञा से उसको नरक में गिरना पड़ेगा। यह बात सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है।

रुद्रभक्तो नरो यस्तु तव निन्दां करिष्यति।
तस्य पुण्यं च निखिलं द्रुतं भस्म भविष्यति।।
नरके पतनं तस्य त्वद्द्वेषात्पुरुषोत्तम।
मदाज्ञया भवेद्विष्णो सत्यं सत्यं न संशय:।।

(शि० पु० रु० सृ० ख० १०। ८-९)

तुम इस लोक में मनुष्यों के लिये विशेषत: भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले और भक्तों के ध्येय तथा पूज्य होकर प्राणियों का निग्रह और अनुग्रह करो।

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