ई-पुस्तकें >> शिवसहस्रनाम शिवसहस्रनामहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव के सहस्त्रनाम...
लिङ्गाध्यक्ष: सुराध्यक्षो योगाध्यक्षो युगावह:।
स्वधर्मा स्वर्गत: स्वर्गस्वर: स्वरमयस्वन:।।९६।।
७३७ लिङ्गाध्यक्ष: - लिंगदेह के द्रष्टा, ७३८ सुराध्यक्षः - देवताओं के अधिपति, ७३९ योगाध्यक्षः - योगेश्वर, ७४० युगावह: - युग के निर्वाहक, ७४१ स्वधर्मा - आत्मविचाररूप धर्म में स्थित अथवा स्वधर्मपरायण, ७४२ स्वर्गतः - स्वर्गलोक में स्थित, ७४३ स्वर्गस्वरः - स्वर्गलोक में जिनके यश का गान किया जाता है, ऐसे, ७४४ स्वरमयस्वनः - सात प्रकार के स्वरों से युक्त ध्वनिवाले।।९६।।
बाणाध्यक्षो बीजकर्ता धर्मकृद्धर्मसम्भव:।
दम्भोऽलोभोऽर्थविच्छम्भु: सर्वभूतमहेश्वर:।।९७।।
७४५ बाणाध्यक्षः - बाणासुर के स्वामी अथवा बाणलिंग नर्मदेश्वर में अधिदेवतारूप से स्थित, ७४६ बीजकर्ता - बीजके उत्पादक, ७४७ धर्मकृद्धर्मसम्भव: - धर्म के पालक और उत्पादक, ७४८ दम्भः - मायामयरूपधारी, ७४९ अलोभः - लोभरहित, ७५० अर्थविच्छम्भुः - सबके प्रयोजन को जानने वाले कल्याणनिकेतन शिव, ७५१ सर्वभूतमहेश्वर: - सम्पूर्ण प्राणियों के परमेश्वर ।।९७।।
श्मशाननिलयस्त्र्यक्षः सेतुरप्रतिमाकृति:।
लोकोत्तरस्फुटालोकस्त्र्यम्बको नागभूषण: ।।९८।।
७५२ श्मशाननिलय: - श्मशानवासी, ७५३ त्र्यक्षः -त्रिनेत्रधारी, ७५४ सेतु: - धर्ममर्यादा के पालक, ७५५ अप्रतिमाकृति: -अनुपमरूपवाले, ७५६ लोकोत्तरस्फुटालोक: - अलौकिक एवं सुस्पष्ट प्रकाश से युक्त, ७५७ त्र्यम्बक: -त्रिनेत्रधारी अथवा त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग, ७५८ नागभूषण: - नागहार से विभूषित ।।९८।।
अन्धकारिर्मखद्वेषी विष्णुकन्धरपातन:।
हीनदोषोऽक्षयगुणो दक्षारिः पूषदन्तभित् ।।९९।।
७५९ अन्धकारिः - अन्धकाश का वध करने वाले, ७६० मखद्वेषी - दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने वाले, ७६१ विष्णुकन्धरपातन: - यज्ञमय विष्णु का गला काटनेवाले, ७६२ हीनदोषः - दोषरहित, ७६३ अक्षयगुण: - अविनाशी गुणों से सम्पन्न, ७६४ दक्षारिः - दक्षद्रोही, ७६५ पूषदन्तभित् - पूषा देवता के दाँत तोड़नेवाले ।।९९।।
धूर्जटि: खण्डपरशुः सकलो निष्कलोऽनघ:।
अकाल: सकलाधार: पाण्डुराभो मृडो नट: ।।१००।।
७६६ धूर्जटिः - जटा के भार से विभूषित, ७६७ खण्डपरशुः - खण्डित परशु वाले, ७६८ सकलो निष्कल: -साकार एवं निराकार परमात्मा, ७६९ अनघः - पाप के स्पर्श से शून्य, ७७० अकालः - काल के प्रभाव से रहित, ७७१ सकलाधार: - सबके आधार, ७७२ पाण्डुराभः - श्वेत कान्तिवाले, ७७३ मृडो नटः - सुखदायक एवं ताण्डवनृत्यकारी ।।१००।।
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