उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मैंने वह पूर्ण व्याख्यान जो मालवीय जी ने वहां तीन दिन में दिया था, पढ़ा है। उस व्याख्यान को हिन्दुस्तान में पेशावर से कलकत्ता तक के सब समाचार-पत्रों ने प्रकाशित किया था। पण्डित मालवीय अथवा गाँधी जी आन्दोलन चलाते और प्रायः मुसलमान उसका विरोध करते तो एक के स्थान पर अधिक जलियां वाला बाग बन जाते और मैं समझती हूं कि स्वराज्य सन् १९२०-२१ में स्थापित होता। उसमें मुसलमान का रोल निम्न स्तर का होता और वे अंग्रेजों के साथ ही अपदस्थ हो जाते।’’
‘‘यह कल्पना मात्र है। सन् १९१६ के समझौते ने ‘रौलेट-ऐक्ट’ आन्दोलन को कुछ तो बल प्रदान किया ही था।’’
‘‘आप भी ठीक कहते हैं। परन्तु मेरे विचार में सन् १९१६ में मुसलमानों के विशेषाधिकार स्वीकार करना कुछ वैसा ही हुआ है जैसा कि सन् १९५० में भारत सरकार का तिब्बत पर चीनी अधिकार स्वीकार करना था।’’
‘‘दोनों को स्वीकार न करने से, कदाचित् उस समय कुछ भी प्रत्यक्ष प्रभाव न होता, परन्तु भविष्य के संघर्ष को यह एक नया रंग दे देता जिससे आक्रान्ता का पक्ष दुर्बल होता। दोनों समय आधारभूत गलत स्वीकारोक्ति से आक्रान्ता का पक्ष प्रबल हुआ था।
‘‘मुसलमानों के विशेष अधिकार स्वीकार करने से हिन्दुओं द्वारा पाकिस्तान का विरोध अयुक्ति-संगत हो गया था। जब मुसलमान समुदाय के विशेषाधिकार स्वीकार किये गए तो विशेषाधिकारों के स्वाभाविक परिणाम अर्थात् पाकिस्तान बनने से इनकार नहीं किया जा सकता था। इसी प्रकार सन् १९५० में तिब्बत पर चीनी अधिकार स्वीकार करने से मैकमोहन तथा ड्यूरेण्ड सीमा रेखायें अस्वीकार हो गयी थीं। इन सीमा रेखाओं की रक्षा के लिए संघर्ष बेमतलब हो गया है।
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