उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘ओह! मैत्रेयी की बात कर रही हो। वह एक भली लड़की थी। अपनी माँ की बीमारी का समाचार पा लन्दन से दिल्ली जाती हुई मिल गयी थी। जैसे तुम्हें जहाज में मेरे साथ की सीट मिली थी वैसे ही उसे भी मेरे साथ की सीट मिली थी। परिचय हुआ और वह नेक विचार की भली लड़की प्रतीत हुई। मैंने उसे दिल्ली में अपनी माँ के पास ठहरने का निमन्त्रण दे दिया तो उसने स्वीकार कर लिया।
‘‘उसकी माँ का देहान्त तो उसी रात हो गया, जिस दिन हम दिल्ली पहुंचे थे और वह लड़की पन्द्रह-सोलह दिन माँ के घर पर रही। मैं बीच-बीच में दिल्ली से बाहर आता-जाता रहा और उससे परिचय बढ़ता गया। माँ ने उसे मेरी पत्नी के रूप में पसन्द किया तो मैं भी उसके गुणों को परखने लगा। मैंने ‘प्रपोज़’ किया तो उसने स्वीकार कर लिया। दोनों माँ के सामने वचनबद्ध हुए तो मैंने बारह सौ रुपये की एक ‘डायमण्ड रिंग’ उसे पहना दी। परन्तु उस बेचारी के मार्ग को बिल्ली काट गयी प्रतीत होती है। दिल्ली से लन्दन की यात्रा आरम्भ होते ही एक रोशन सितारा नज़र के सामने आया और बेचारी के जीवन का कांटा बदल गया। यह तो आज ही पता चला है कि कितनी ‘मिसचीवियस’ (शरारत भरी) लड़की मेरे भाग्य में लिखी थी।’’
‘‘तो आपको अब इस सम्बन्ध पर अफसोस लगने लगा है?’’
‘‘यह तो नहीं कह सकता। हां, कितना भाग्यशाली हूं, यह तुम्हारा इतिहास जानने से पता चलेगा।’’
‘‘तो क्या जो कुछ मैंने आज ब्रेक-फास्ट से पहले परिचय दिया है वह काफी नहीं है?’’
‘‘वह तो ज्वालामुखी के फट पड़ने के तुल्य था। उसकी अग्नि से अभी भी झुलसा हुआ अनुभव कर रहा हूं। परन्तु इस ज्वालामुखी का उत्पत्ति स्थान जानने की भी इच्छा है।’’
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