उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘नज़ीर की माँ ने दरवाज़ा खोला और देर से रोगी होने के कारण एक दुर्बल व्यक्ति के पास जा खड़ी हुई। नज़ीर माँ के समीप खड़ी थी। उस समय एक नर्स खड़ी उनका बिस्तर ठीक कर रही थी और वह एक स्टूल पर बैठे थे। दोनों, नज़ीर के माता-पिता एक-दूसरे को देख रहे थे। परन्तु नर्स के वहां होने के कारण कुछ कह नहीं रहे थे।’’
‘‘नर्स बाहर गयी तो नज़ीर के पिता मुस्करा कर बोले, ‘इरीन! तुम अभी भी वैसी ही सुन्दर हो जैसी कि आज से चौदह वर्ष पूर्व थीं।’’
‘मगर आपने यह क्या सूरत बना रखी है?’ नज़ीर की माँ ने खड़े-खड़े ही पूछ लिया।
‘‘इस समय नज़ीर के पिता स्टूल से उठ पलंग पर जा बैठे और नज़ीर की माँ को स्टूल पर बैठने के लिए कहने लगे। नज़ीर की माँ स्टूल पर बैठी तो बोले, ‘यह तुम्हारी लड़की है। तुमसे कुछ अधिक ही सुन्दर होगी। अभी तो कच्चा फल ही मालूम होती है।’’
‘‘नज़ीर की माँ ने कुछ डांट के भाव से कहा, ‘यह आपकी लड़की है। परन्तु इसे अपने पिता का स्नेह प्राप्त नहीं हुआ।’’
‘‘इस पर नज़ीर के पिता ने बात बदल दी। उसने कहा, ‘मैंने ‘अपैण्डेसाइट्स’ का ऑपरेशन कराया था। उसके बाद मुझे पेचिश की बीमारी हो गयी। अब कुछ दिन से ज्वर भी रहने लगा है, इस कारण हस्पताल में दाखिल होना पड़ा है। मैं अब ठीक हो रहा हूं। आशा है कि पन्द्रह दिन में यहां से छुट्टी पा जाऊंगा। तब मैं पाकिस्तान जाने का विचार कर रहा हूं। वहां का समाचार है कि वहां इन्कलाब हो गया है।’’
‘‘क्या हुआ है?’
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