उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘तो आप उनसे कहकर मेरे लिये कोई उचित मकान ले दें।’
‘मैं यह नहीं करूंगा। यह मेरे कामों में नहीं कि मैं स्वतः किसी बात की सिफारिश करूं। आप अपनी बात कहेंगी तो फिर साहब मुझ से राय करेंगे। तब मैं आपके काम के लायक रहने के स्थान का सुझाव दे दूंगा।’
‘यह भी ठीक है। मैं बात करूंगी।’
‘‘इस समय उस कमरे के बाहर घण्टी बजी और अज़ीज़ साहब बोले, चलिये, साहब अब खाली हो गये हैं।’’
‘‘मैं उनके साथ प्रतीक्षालय से निकल कई बरामदों में से होते हुए एक बड़े कमरे में फादर के सामने उपस्थित कर दी गई। मुझे देखते ही फादर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘तुम नज़ीर हो?’’
‘जी!’
‘तुम बिल्कुल अपनी माँ की उस समय की तस्वीर हो, जब मेरी उससे प्रथम भेंट हुई थी।’
‘‘इसमें उत्तर देने को कुछ नहीं था। मैंने कहा, ‘पापा! मैं यहां कुछ वर्ष तक रहने आई हूं।’’
‘मैं समझता हूं कि तुम यहां पक्का रहने का विचार बना लो। मैं तुम्हें किसी पद पर नियुक्त कर दूंगा और तुम पाकिस्तान का भाग्य उज्ज्वल करने में सहयोग दो।’
|