उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘जब वहां इस्लामी हुकूमत कायम हो जायेगी।’
‘कब कायम होगी?’
‘हुजूर! कभी तो होगी।’
‘‘मैं अभी किसी से भी और विशेष कर एक छोटे दर्जे के नौकर से वाद-विवाद में पड़ना नहीं चाहती थी। इस कारण बात बदल पूछने लगी, ‘शादी की है?’’
‘हां, हुजूर!’
‘बाल-बच्चे हैं?’
‘‘हुजूर! खुदा की मेहर मालूम नहीं होती। औलाद नहीं हुई।’
‘ओह! क्यों?’
‘‘खुदा नाराज मालूम होते हैं। कम से कम मेरी बीवी यही कहा करती है।’’
‘वह भी इण्डिया की रहने वाली है?’
‘हां हुजूर! जब मैं वहां था तब ही उससे शादी की थी। उसने तो कई बार कहा है कि मैं दूसरी शादी कर लूं, मगर मैं नहीं मानता। मैं उससे अजहद मोहब्बत करता हूं।’
‘मुमकिन है कि वह तुमसे और भी ज्यादा मुहब्बत करती है। तभी शायद वह कहती है कि नई शादी कर अपना परिवार चलाओ।’
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