उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘हुजूर! यह तो उसका मन ही जानता है कि वह क्या कहती है। ज़ाहिर में तो वह अपने को मुझसे छुट्टी पाने के लिये कहती रहती है। वह अपने को ही किसी किस्म की मुश्किल में फंसा हुआ महसूस करती है।’
‘‘मैं चाय के साथ केक, पेस्टरी खा रही थी और उसे गले के नीचे उतारने के लिये घूंट-घूंट कर चाय पी रही थी। मैं बैयरे के कथन पर विचार करने लगी। उसने कहा था कि वह उससे छुट्टी पाने के लिए दूसरी शादी करने के लिए कहती है। मुझे चुपचाप चाय पीते देख बेयरा ने पूछ लिया, ‘हुजूर! कुछ और चाहिये?’
‘नहीं बहुत है।’
‘तो मैं जाऊं?’
‘तुम अपनी बीवी को हमसे मिला सकते हो?’
‘वह घर से बाहर बहुत कम निकलती है। इसीलिये वह उसकी मर्जी पर है। यदि हुजूर कहें तो उससे पूछ सकता हूं।’
‘मैं यहां की औरतों से मिलना चाहती हूं। यदि वह मिल सके तो मैं उसकी शुक्र गुजार हूंगी।’
‘‘मुश्ताक अहमद ने झुक कर सलाम की और कमरे से बाहर निकल गया। चाय पीकर मैं कुछ चुस्ती अनुभव करने लगी। इस कारण अपनी पुस्तक की योजना पर विचार करने लगी। परन्तु एक आराम कुर्सी पर ढासना लगा विचार करने लगी तो सो गई।
‘‘मेरी नींद खुली जब द्वार के बाहर खड़े बेयरा ने धीरे से पूछा, ‘हुजूर! मैं भीतर आ सकता हूं क्या?’’
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