उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘मगर तुम समझती तो हो।’
‘इसलिये कि वहां की भाषा अभी भूली नहीं। मैं दिल्ली की रहने वाली हूं।’
‘हां! मैंने वहां की भाषा ही सीखी है। मेरे गुरु ने बताया था कि वहां की भाषा सीख जाने से मैं पेशावर से कन्याकुमारी तक लोगों से बातचीत कर सकूंगी।’
‘इस पर भी मुझे अंग्रेज़ी भाषा का अभ्यास है। परन्तु वह तो तुम जानती नहीं।’
‘हां! यह बात तो है कि अपनी बचपन की भाषा जानती हुई मैं पंजाबी भी समझ जाती हूँ और उर्दू की बोली भी समझ जाती हूं।’
‘तो! तुम दिल्ली की रहने वाली हो?’
‘जी! मैं वहां कश्मीरी दरवाजे के पास एक गली में रहती थी।’
‘तो तुम्हारा विवाह इस...मुस्ताक से हुआ है?’
‘जी! इस खुदा के बन्दे ने मुझसे शादी कर ली है और तब से मैं इसके पास ही रहती हूं।’
‘मुझे हंसी सूझी। मैंने पूछ लिया, ‘और तुमने मुश्ताक से शादी नहीं की?’
‘‘नसीम चुपचाप मेरा मुख देखती रही। मेरी बात का उसने मुझे उत्तर नहीं दिया। मुझे इस चुप्पी-में कुछ अस्वाभाविकता प्रतीत हुई तो मैंने पूछा ‘क्यों? चुप क्यों हो गई हो?’’
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