उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘उसने दीर्घ श्वासं छोड़ कहा, ‘हुजूर! कुछ तो है जो मैं बताना नहीं चाहती।’’
‘तो तुमको यह माँ के घर से भगा लाया है?’
‘यह आप उससे ही पूछ लीजिएगा। मैं अपने मुँह से नहीं कह सकती।’
‘तो कुछ खराब बात है क्या?’
‘खराब या अच्छी तो अपने-अपने सोचने से ताल्लुक रखती है। मैं तो इसको अपनी जवान से कहने से डरती हूं।’
‘देखो नसीम! मैं बताऊंगी नहीं। किसी को भी नहीं। तो क्या इसने तुमसे बलात्कार किया था?’
‘‘नसीम अभी भी बताने से झिझकती थी। मैंने जब बहुत आग्रह किया और उसे आश्वासन दिया कि मैं किसी को नहीं बताऊंगी तो उसने अपने विवाह की कहानी बता दी।
‘‘नसीम का कहना था, मेरे माता पिता ने मेरा नाम यमुना रखा था। मैं एक ब्राह्मण हिन्दू की लड़की हूं।’’
‘मेरी मौसी के लड़के का विवाह था और मैं अपनी माँ के साथ बरात में जा रही थी। उस समय मेरी आयु चौदह वर्ष की थी। जब बरात दिल्ली की जामा मस्जिद के पिछवाड़े से गुजरने लगी तो मस्जिद से चालीस-पचास मुसलमानों की एक मण्डली हाथ में तलवारें और बरछे लिए निकल आई और बरातियों पर टूट पड़ी। दूल्हा तो घोड़ी पर ही भाग गया। बरातियों में से कुछ मारे गये और शेष भाग गये। प्रायः सब औरतें जो बरात के साथ थीं, लूट का माल बन गईं। उनमें मैं भी लूटी गई और उसी रात बल्ली माराँ के एक मकान में पहले मुझ पर मुश्ताक साहब ने बलात्कार लिया और फिर मुल्ला बुलाकर मुझसे शादी कर ली। उस समय मैं क्रोध से पागल हो रही थी। मुझे शोर मचाने से रोकने के लिए मेरे मुख पर पट्टी बांध रखी थी। शादी के बाद मुझे एक डोली में डालकर कहीं दूर एक गांव में ले जाकर छुपा दिया गया। वहां यह मियां रोज आते थे और कुछ दिनों में मैं अपने भाग्य पर अपने को छोड़ इनके साथ रहने लगी।
|