उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
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सायंकाल तेजकृष्ण नज़ीर को एक ‘मूवी’ दिखाने ले गया और उसके पश्चात् दोनों एक होटल में खाना-खाने जा पहुंचे। इस प्रकार जब उस दिन की सायंकाल वे मनोरंजन कर घर लौटे तो नज़ीर ने कह दिया ‘‘मैं समझती हूं कि आज हमारा ‘हनीमून’ आरम्भ हुआ है।’’
‘‘और जो कुछ कल हुआ था?’’
‘‘वह तो किसी ‘ट्राज़ेक्शन’ (व्यापार) की ‘एडवांस पेमैण्ट (अग्रिम अदायगी) थी। मूल व्यापार तो आज हुआ है।’’
‘‘मैं समझता हूं कि यह अभी आरम्भ ही हुआ है। मैं तो एक लंबे जीवन काल में तुम्हारी संगत का इसी प्रकार रसास्वादन करने की अभिलाषा रखता हूं। मैं इतने मात्र से सन्तुष्ट नहीं हूं।’’
‘‘परन्तु जो कुछ हमने आरम्भ किया है वह तो ‘डिके’ (ह्नास) का सूचक भी है और कब हम निरर्थक, नीरस जीवन के वहन करने वाले बन जायेंगे, कहा नहीं जा सकता।’’
‘‘वह तो हमारा शरीर होगा, परन्तु मैं समझता हूं कि हमारी आत्मा तो परस्पर दिन-प्रतिदिन अधिक से अधिक रसमय होते जायेंगे।’’
‘‘आप तो आत्मा के बार-बार जन्म लेने के सिद्धान्त को मानते हैं।’’
‘‘हां! यह हम हिन्दुओं के मन में बहुत पक्की तरह से जम चुका है कि यह प्रत्यक्ष जीवन एक लम्बे जीवन का बहुत ही छोटा-सा हिस्सा है।’’
‘‘और आपकी पूर्व जीवन में कोई पत्नी रही होगी?’’
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