उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘वही तो मैं इस ‘हनीमून पीरियेड’ में विश्वास करा सकूंगा।’’
अगले दिन भी जब नज़ीर सोकर उठी तो तेजकृष्ण अपना बुलेटिन तैयार कर लिफाफे में बन्द कर रहा था।
‘आप किस समय उठकर काम पर लग जाते हैं?’’
‘‘यह मेरा स्वभाव बन गया है कि मैं अपने लिखने-पढ़ने का काम प्रातःकाल करता हूँ। मैं जब विश्वाविद्यालय में पढ़ता था तब भी मैं पढ़ाई प्रातः के समय ही किया करता था। तब से यह मेरे कार्यक्रम का एक अनिवार्य अंग बन चुका है।’’
‘‘मैं तो रात को पढ़ा करती थी।’’
‘‘यह ठीक ही था। आखिर तुम एक स्त्री हो और मैं पुरुष हूं। दोनों पृथ्वी के दो ध्रुव हैं और एक दूसरे से उलट हैं। जब एक में ग्रीष्म ऋतु होती है तो दूसरे में शरद ऋतु। जब एक की रात होती है तो दूसरे का दिन होता है।’’
‘‘परन्तु दो रात से हम इकट्ठे ही सोते रहे हैं।’’
‘‘उस समय हम दोनों ‘इक्वेटर’ (भूमध्य रेखा) पर आ जाते हैं। वहां दिन-रात सदा समान रहते हैं।’’
नज़ीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप बहुत मजेदार आदमी हैं। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर आपके पास सदा तैयार रहता है।’’
‘‘हां! अब उठो, हमें शीघ्र हाई कमिश्नर के कार्यालय में जाना है।’’
‘‘कब जायेंगे?’’
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