उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘जब मैं ऐबटाबाद से चला था तब ही मेरे साथ एक खुफिया पुलिस का अफसर भी आया था और उसने ही मेरा नाम-धाम तथा काम इत्यादि यहां लिखाया है। इसी के कहने पर मैं यहां रह रहा हूं।’
‘उसने मेरा नाम और धाम तो ठीक लिखाया है, मगर मुझे खुफिया पुलिस का एक घटक बताया है।’
‘‘प्राईम मिनिस्टर लियाकत अली की हत्या के उपरान्त दिलावर खां को ऐबटाबाद से रावलपिण्डी में लाया गया और उसके बयान पुलिस ने लिए थे।’’
‘‘उससे पूछा गया, ‘तुम उस मीटिंग में गए थे जिसमें मरहूम प्राईम मिनिस्टर को मारा गया था?’
‘जी हां।’
‘कहां बैठे थे तुम?’
‘मैं मीटिंग की भीड़ के बाहर ही खड़ा रहा था।’
‘तुम भीतर अपने बाप के साथ क्यों नहीं गए थे?’
‘पहले एक पुलिस वाला आया था और बाप को लेकर मीटिंग में चला गया था। मैं तो अपनी इच्छा से तमाशा देखने गया था। वहां मेरे पहुंचने से पहले बहुत बड़ा हजूम इकट्ठा हो चुका था। मैं भीतर नहीं जा सका।’
‘तुम उस पुलिस वाले को पहचान सकते हो जो तुम्हारे वालिद को मीटिंग में ले गया था?’
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