उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘देखिये! मेरे कहने का मतलब यह है कि मजहबों में समानता अधिक है। मगर मजहब वालों में असमानता अधिक है। दूसरे शब्दों में लोगों के आचरण में भेद है।’’
‘‘इसका अर्थ यह है कि लोग अपने-अपने मज़हब पर अमल नहीं करते।’’
‘‘बस अमल में ही फर्क है।’’
‘‘मगर मुसलमान तो अपने ईमान पर कायम हैं।’’
‘‘सिर्फ एक बात में?’’
‘‘किस बात में?’’
‘‘मजहबी बातों में अकल को दखल न देने में।’’
‘‘तो क्या हिन्दू अपनी मजहबी बातों में अकल को दखल देने देते हैं?’’
‘‘हां, तभी तो हिन्दुओं में अनगिनित मजहब है। बुद्धि से विचार कर प्रत्येक व्यक्ति मजहब में कुछ न कुछ परिवर्तन करता है।’’
‘‘तो कौन-सी अच्छी बात है?’’
‘‘मैं समझती हूं कि दोनों गलत हैं।’’
‘‘वाह! यह खूब चहूं भी ठीक और कहूं भी ठीक। दो परस्पर विरोधी बातें कैसे ठीक हो सकती हैं?’’
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