उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
6 पाठकों को प्रिय 203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘यह इस कारण कि दोनों में गलती एक ही है। जो मुहम्मद साहब की प्रत्येक बात पर ईमान लाते हैं, अक्ल का इस्तेमाल तो वे भी करते हैं, परन्तु उनकी अक्ल ही कहती है कि ईमान लाने में ही लाभ है मतलब यह कि अक्ल को ताला लगाना भी तो उनकी अक्ल का ही काम है।’’
‘‘कहने का मतलब यह है कि उनकी अक्ल की ‘ट्रेनिंग’ (शिक्षा) गलत हैं। इसी प्रकार जो अक्ल का इस्तेमाल कर नये-नये मजहब बनाये चले जाते हैं उनकी अक्ल भी नाकस (दोष पूर्ण) है।’’
‘‘दोनों में भूल यह है कि दोनों अक्ल को ट्रेनिंग’ दिये बिना उसका इस्तेमाल (प्रयोग) कर रहे हैं। जो अक्ल कहती है कि जमाना, मुल्क और पड़ोसियों की बात का विचार किये बिना कुरान पर ईमान लाते जाओ, उनकी अक्ल नाकस है। इसी तरह जो अपने मजहब में बिना भला-बुरा विचार किये उसे बदलते चले जाते हैं, उनकी बुद्धि भी ‘अन्-ट्रेण्ड’ हैं।’’
‘‘यदि बुद्धि को ठीक ट्रेनिंग दी जाये तो फिर न तो मजहब पर अन्ध-विश्वास होगा और न ही मजहब में अनावश्यक रद्दो-बदल होगी।’’
‘‘तो यह अक्ल को ‘ट्रेनिंग’ कैसे दी जा सकती है?’’ युसुफअली का प्रश्न था।
‘‘एक विद्या है योगाभ्यास की। योगाभ्यास से बुद्धि में विकास हो सकता है। एक ‘स्टेज’ स्तर) पर सब बुद्धियां समान हो जाती हैं तब मुसलमान, मुसलमान रहता और मुतास्सिब नहीं रहेगा और एक हिन्दू, हिन्दू रहता हुआ विचारों में परिवर्तन करने से पहले विचार करेगा और फिर परिवर्तन करेगा।
|