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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


‘‘दोनों कम्युनिटीज़ में योग बुद्धि वाले एक समान हो जायेंगे।’’

‘‘इससे तो सब हिन्दू-मुसलमान हो जायेंगे।’’

‘‘तो हो जायें। आपको इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। यह एक ‘नेचुरल प्रोसेस’ (एक स्वाभाविक प्रक्रिया) होगी।’’

‘‘परन्तु सुना है कि योग बहुत ही कठिन विद्या है।’’

‘‘नहीं। यह बात नहीं। हम बाल-वृद्ध सब इसकी ‘प्रेक्टिस’ अभ्यास) करते हैं। न्यूनाधिक सब इसमें सफलता पाते हैं।’’

‘‘देखिए, हिन्दुओं के एक महान योगेश्वर हुए हैं। उन्होंने कहा है–

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरिविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।


‘‘इसका अर्थ है कि जो मनुष्य इस जीवन में ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, वह इस जीवन में ही योगी और सुखी है।’’

‘‘तनिक इसकी व्याख्या करिये। बात समझ में नहीं आ रही।’’

‘‘काम का अभिप्राय है इच्छायें, ख्वाहिशात। क्रोध का अभिप्राय तो सब जानते हैं गुस्सा। इनसे उत्पन्न वेग से अभिप्राय है व्यवहार। उसको जो रोक सकता है–वही योगी है।’’

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