उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मुझे उनके ऐसा समझने में भला आपत्ति क्यों होगी? वे जो चाहें, समझ सकते हैं।’’
‘‘परन्तु मैत्रेयी जी! यदि उनका समझना सत्य सिद्ध न हुआ तो मैं सत्य ही बुद्धू बन जाऊँगा। आप जैसी अनुपम वस्तु को प्राप्त करने का अवसर रखता हुआ भी यदि मैं उसका लाभ नहीं उठा सकूं तो बुद्धू बन ही जाऊँगा।’’
‘‘तेज जी! यह आपने आज किस विषय पर वार्तालाप आरम्भ कर दिया है? क्या अन्य सब विषय समाप्त हो गए हैं?’’
‘‘तो क्या यह विषय इतना अनावश्यक और घटिया है कि इस पर वार्तालाप तब ही होना चाहिए जब अन्य सब विषयों पर बात समाप्त हो जाये?’’
‘‘घटिया और अनावश्यक तो मैंने नहीं कहा। इस पर भी मैं यह समझती हूं कि जीवन के तथा संसार के विषयों पर वार्तालाप का परिणाम ही यह विषय हो सकता है।’’
‘‘मैं समझता हूं कि इतने दिन के वार्तालाप का निष्कर्ष आज निकल आये तो समय से पहले नहीं कहा जा सकता।’’
‘‘तो ऐसा करिए कि माताजी से कहिए कि इस विषय में आप को और मुझे आशीर्वाद दे दें।’’
‘‘हाँ; आपकी स्वीकृति है तो मैं माताजी को कह दूंगा। उनको विवाह के लिए कब कहूं?’’
‘‘यह तो वह ही बतायेंगी। विवाह एक परिवारिक कार्य है। यह उनकी स्वीकृति और रुचि के अनुसार ही होना चाहिए।’’
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