उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मेरा वश चला तो मैं उन्हें विद्वान ब्राह्यण ही बनाना चाहूंगी। परन्तु आपके सुपुत्र क्या चाहेंगे, यह तो वह ही बता सकेंगे। मेरे लिये उनकी इच्छा का विरोध सम्भव नहीं होगा।’’
‘‘पर मैं तो पसन्द करूंगी,’’ शकुन्तला ने कह दिया, ‘‘कि भैया के घर में वेद मंत्रों की प्रातः सायं ध्वनि उठा करे।’’
‘‘परन्तु वेद ध्वनि से आर्थिक दृष्टि में कुछ प्राप्त भी हो सकेगा?’’
तेज ने पूछ लिया।
‘‘उसके लिये हम परिवार के सब लोग उनकी सहायता कर देंगे।’’
‘‘कैसे सहायता कर देंगे?’’ अभी तेजकृष्ण ने ही पूछा। वह गाड़ी चला रहा था। इसलिये आगे को देखता हुआ ही बात कर रहा था।
शकुन्तला ने कहा, ‘‘मेरे एक देवर हैं। वह काम-धन्धा कुछ नहीं करते। दिन-रात पुस्तकालय और पुस्तकों में लीन रहते हैं। सोम के पिता जी ने अपनी फर्म में उनको ‘स्लीपिंग पार्टनर’ बना रखा है। पिछले वर्ष उनको अपने लाभ का दस सहस्त्र रुपया मिल गया था और अभी पाँच सहस्त्र और मिलने वाला है। आय-कर विभाग वालों ने कुछ झगड़ा खड़ा कर दिया है। इससे उनका पांच सहस्त्र रुका पड़ा है। सोम के पिता कहते हैं कि यह आय-कर विभाग वालों की धींगा-मुश्ती है।’’
सोम शकुन्तला के लड़के का नाम था। उसके देवर का नाम था शिवदास सोमानी। उसने कलकत्ता विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० और डी०-लिट् की उपाधि प्राप्त की थी। उसे विश्वविद्यालय में दो सहस्त्र रुपया प्रतिमास की नौकरी मिलती थी, परन्तु उसने सेवा स्वीकार नहीं की थी और अपने पठन और लेखन कार्य में लगा रहा। उसको सेवाकार्य अस्वीकार करते देख मोहनचन्द ने उसको अपनी फर्म में एक सौ हिस्से दे दिये थे। यह दो वर्ष से हो रहा था और शिवदास सन्तुष्ट हो अपने कार्य में लगा हुआ था।
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