उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
यशोदा ने जब शकुन्तला के देवर की बात सुनी तो बोली, ‘‘ठीक है। यदि तेज के लड़के भी शिवदास की भाँति हुए तो उनके लिये भी निर्वाह योग्य प्रबन्ध हो जायेगा।’’
‘‘पर माँ!’’ तेज ने अपना विचार बता दिया, ‘‘मैं अपने बच्चों को भिखारी नहीं बनाऊँगा।’’
‘‘तो घर की सम्पत्ति में से कुछ प्राप्त करना भिक्षा वृत्ति समझते हो?’’
‘‘बिल्कुल!’’ तेजकृष्ण का निश्चित उत्तर था।
इस पर माँ ने कहा, ‘‘तब तो तेज, तुम सबसे बड़े भिखारी हो। तुम्हारे पिता ने एक बार लिखा था कि तेज स्वयं बहुत कमा लेता है; परन्तु इस पर भी मुझसे प्रति मास कुछ न कुछ माँग कर ले ही जाता है।’’
‘‘माँ! विवाह के उपरान्त नहीं होगा।’’
‘‘ठीक है। तब तुम भिखारी नहीं रहोगे। यह तुम्हारे विचार से ही कह रही हूं। परन्तु मैं इसे भीख माँगना नहीं कहती। जानते हो कि मैंने तुम्हारे पिताजी को क्या लिखा था?’’
‘‘क्या लिखा था, माँ?’’
‘‘यही कि तुम ऊँच-नीच बराबर करने का यत्न कर रहे हो। एक परिवार में यह स्वाभाविक ही है।’’
मैत्रेयी को इस परिवार का एक अन्य रूप दिखायी दिया। वह समझ गयी कि मारवाड़ियों में भाई-बन्धुओं की सहायता की भावना प्रबल है। यूरोपियन रहन-सहन ने तेजकृष्ण में इस भावना को कम किया है, परन्तु अन्य सदस्य, जिनमें अपनी बिरादरी का स्वभाव बना है, वे इस प्रकार की परस्पर सहायता को स्वाभाविक ही समझते हैं।
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