उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
हवाई जहाज अभी चला नहीं था कि उस बुर्के में छुपे प्राणी ने धीमी हंसी में कह दिया, ‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं। जहाज चलते ही मैं यह उतार डालूंगी।’’
तेज का सतर्क उत्तर था, ‘‘मुझे आपका बुर्का परेशान नहीं कर रहा।’’
‘‘तो फिर क्या परेशान कर रहा है?’’
‘‘यही कि इस लम्बी यात्रा पर साथी कैसा मिला है।’’
‘‘यही तो कह रही हूं। यह उतर जायेगा तो जान जायेंगे कि परेशान होने या ना उम्मीद होने की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’
‘‘तब तो ठीक है। खुदा का शुक्र गुजार हूंगा कि किसी भले हम-सफर से मिला हूं।’’
‘‘सब्र रखिये! मेरे अंकल, अभी हवाई जहाज के नीचे खड़े हैं।’’
‘‘तो वह साथ नहीं जा रहे?’’
इस समय जहाज का द्वार बन्द कर दिया गया और उसमें इंजन स्टार्ट कर दिया गया। इसके साथ ही तेजकृष्ण के साथ ही सीट पर बैठी स्त्री ने बुर्का उतार उसे लपेट अपने घुटनों पर रख लिया।
तेजकृष्ण बुर्के में से निकले प्राणी को देख चकित रह गया। वह देखने में उन्नीस-बीस वर्ष की लड़की प्रतीत होती थी। बुर्का उतारते ही तेजकृष्ण को ऐसा अनुभव हुआ कि मानो सम्मुख पूर्णिमा का चांद निकल आया है। तेजकृष्ण मन्त्र मुग्ध इस लड़की की ओर देख रहा था कि उस लड़की ने पूछ लिया, ‘‘अब क्या देख रहे हैं?’’
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