उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
तेज ने कहा, ‘‘मैं पिछले शुक्रवार को रावलपिंडी में था। वहां पर सैकड़ों ही औरतें और लड़कियाँ बिना बुर्का पहने घूमते देख चुका हूं और आप कहती हैं कि आप पाकिस्तानी लड़की हैं।’’
‘‘लड़की तो मैं अपने माँ-बाप की हूं। लेकिन बाप पाकिस्तान में एक अफसर हैं और माँ लन्दन में रहती है। मैं भी जब पाकिस्तान में थी तो बुर्का नहीं पहनती थी। मगर वालिद शरीफ का हुक्म था कि भारत में मुझे बुर्का पहनना चाहिये। इसलिए दिल्ली ऐयरोड्रोम पर पहुंचते ही यह पहना था और फिर दिल्ली में उड़ते ही बुर्का उठा दिया है।’’
‘‘तो यह बुर्का भारत में छुपकर रहने के लिए ही था?’’
‘‘हां! यह वालिद साहब के ख्याल के मुताबिक है। उनका ख्याल है कि हमारी खूबसूरती भारत के काफिरों की नज़र के लिए नहीं है।’’
‘‘ओह! मगर बुर्का उठते ही एक भारतीय की नज़र ही आपके खूबसूरत मुख पर पड़ी है।’’
‘‘मगर मेरे वालिद साहब का तो ख्याल है कि मैं बुर्का लन्दन जाकर ही उतारूंगी।’’
‘‘ओह! तो मुझे आपका शुक्रिया अदा करना चाहिये।’’
‘‘नहीं! इसकी जरूरत नहीं। मैंने आपकी बगल में सीट पर बैठते ही फैसला कर लिया था कि जहाज चलते ही बुर्का उठा लूंगी।’’
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