उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
6 पाठकों को प्रिय 203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘यह मुकाबले की बात कैसे आ गयी? मैं एक बच्चे का बाप हूं। तेज से गहरे रंग का हूं और तेज तो बहुत अच्छी अंग्रेज़ी में बातचीत कर सकता है। मुझे तो उस भाषा का इतना अभ्यास नहीं है।’’
‘‘परन्तु क्या यह पुरुषत्व के लक्षण हैं?’’
‘‘तो वह क्या लक्षण बताती थी?’’
‘‘जिससे कोई भी औरत पुरुष की ओर आकर्षित होती है।’’
‘‘पर तुम तो कभी आकर्षित होती ही नहीं।’’
‘‘तो सोम ऐसे ही पैदा हो गया। देखिये जी हम हिन्दू स्त्रियां अपने मन की इच्छाओं को प्रकट होने नहीं देतीं। इस पर भी कामनायें तो हमारे मन में भी होती हैं। इस बात में उस मुसलमान छोकरी की बात को मैं ठीक समझती हूं। आपमें विशेष आकर्षण तो है ही। वह कह रही थी कि मुझे आपके विषय में चिन्ता करनी चाहिये। अन्यथा लन्दन में लड़कियों की भरमार है और वे आप जैसे व्यक्ति को शान्ति से रहने नहीं देंगी।’’
‘‘तुम्हें मेरी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो तुमसे विवाह कर चुका हूं और तुम्हें बहुत पसन्द करता हूं। मुझे चिन्ता तेज की लग रही है। अभी चौबीस घण्टे की यात्रा और है। इतने में वह उसे परास्त करने का यत्न कर सकती है। तब इस बेचारी मैत्रेयी की अवस्था चिन्ताजनक हो जाएगी।’’
‘‘मैत्रेयी में अपना सौन्दर्य है। वह शान्त चित्त, सन्तुष्ट और नेक विचार रखती है। मैं समझती हूं कि भैया इतने उच्छृंखल नहीं कि इस प्रकार की तितलियों के प्रलोभन में जायेंगे।
|