उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
6 पाठकों को प्रिय 203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मुझे तो आपके विषय में भय लगने लगा है। इतना शुक्र है कि वह आपकी बगल में नहीं बैठी हुई। वरना आप तो...।’’
‘‘मैं क्या? कह दो न।’’
‘‘जत सत से फिसल गये होते।’’
‘‘मोहनचन्द हंस पड़ा।
इस लड़की के विषय में यशोदा और मैत्रेयी में भी चर्चा हुई थी। मैत्रेयी ने तो यह कहा, ‘‘इस लड़की में स्त्रियों की शालीनता नहीं है। यह अवश्य किसी यूरोपियन औरत की मुसलमान से सन्तान है। इसमें दोनों कौमों के गुण प्रतीत होते हैं। यह जहां पुरुषों की भूखी मालूम होती है वहां ‘बोल्ड’ भी है। विषय-वासनामय होना इसने बाप से उत्तराधिकार में प्राप्त किया है और ‘सैक्स’ के विषय में निस्संकोच बातचीत करना इसने अपनी माँ से सीखा मालूम होता है।’’
‘‘मैं चाहती हूं कि मैं इस लड़की के पास जाकर बैठ जाऊं और तेज को यहां तुम्हारे पास बिठा दूं।’’
‘‘माताजी! यह ठीक नहीं होगा। इससे उनके मन में भ्रम उत्पन्न हो जाएगा कि मैंने कह कर यह अदला-बदली करायी है।’’
‘‘तो यह कोई अनुचित बात है?’’
‘‘अनुचित न भी हो, मुझे इससे लज्जा अनुभव होती है। साथ ही वह समझने लगेंगे कि मैं उनकी अपने प्रति निष्ठा पर सन्देह कर रही हूं। मेरे मन में ऐसा किसी प्रकार का विचार नहीं। न ही मैं यह संशय उनके मन में उत्पन्न होने देना चाहती हूं।’’
|