उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मेरे जन्म के समय वालिद साहब हिन्दुस्तान में एक सैनिक अफसर हो गए थे। तब अभी पाकिस्तान बना नहीं था। अभी सैकिण्ड वर्ल्ड वार’ भी शुरू नहीं हुई थी। मैं पैदायश से इंगलैंड की नागरिक हूं और बाप के रिश्ते में एक मुसलमान हूं।’’
‘‘आपके वालिद उस वक्त क्या काम करते थे?’’
‘‘वह इगलैंड में तालीम हासिल करने आये हुए थे। माँ तब लन्दर यूनिवर्सिटी में पढ़ती थीं।’’
‘‘आपके वालिद तब किस यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे?’’
‘‘माँ ने बताया था कि वह उसे हाइड पार्क में मिले और नजदीक होटल में चाय लेने की दावत देने लगे। माँ को उनका ‘प्रपोज़ल’ पसन्द आया। वहां चाय ली और फिर दिन भर वहां कमरे में रहे। माँ का कहना है कि पहली मुलाकात में ही वह उनके मोह जाल में फंस गयी थी।
‘‘माँ वहां से अपने घर नहीं गयीं। लन्दन में ही रहीं। होटल में वालिद साहब से मिलती रहीं और जब तक वह इंगलैंड में रहे वह माँ से होटल में मिलते रहे। मेरे बीजारोपण को अभी छः महीने ही हुए थे कि वालिद साहब हिन्दुस्तान की सरकार की नौकरी पा गये। वह यह वचन दे गये थे कि माँ को उसके बच्चे के साथ हिन्दुस्तान बुला लेंगे। मगर उनके हिन्दुस्तान जाते ही उनकी शादी हो गयी। माँ खाविन्द की दूसरी बीवी बनने के लिए तैयार नहीं हुईं।’’
तेजकृष्ण ने देखा कि इस लड़की ने इतनी बातों में भी अपने वालिद का परिचय नहीं दिया। इस पर वह यह समझ गया कि वह किसी ‘डिप्लोमैटिक सर्विस’ में हैं और उसका नाम-धाम यह बताना नहीं चाहती। अब उसके विषय में पुनः पूछना उचित न समझ उसने बात बदल दी। उसने पूछ लिया, ‘‘अब आपकी माँ इंगलैंड में क्या करती हैं?’’
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