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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


यही प्रवृत्ति पण्डित जवाहरलाल की थी। सन् १९२३ में मौलाना मुहम्मदअली मुसलमानों को गोमांस खाने की सम्मति कांग्रेस प्लेटफार्म पर से देते थे। परन्तु जवाहरलाल मौलाना से इस विषय में कुछ कहने से डरते हुए भी आर्य समाजियों की निन्दा करने में संकोच नहीं करते थे। फिर सन् १९४७ तथा १९५० में मुसलमानों की बिहारी तथा कलकत्ता में हानि होती देख तिलमिला उठे थे, परन्तु सन् १९४७, १९४८ और १९५० में पंजाब, कश्मीर और पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के कत्ले आम पर तटस्थता का भाव रखे रहे थे। यह सब इतिहास को मिथ्या दृष्टि से पढ़ने के कारण ही था।

जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था तो भारत के विद्वानों ने भारत के प्रधान-मन्त्री को सचेत किया था कि चीन के तिब्बत पर अधिकार को भारत सरकार द्वारा स्वीकार नहीं करना चाहिए। सरदार पटेल ने जवाहरलाल जी को सचेत किया, परन्तु जवाहरलाल, जो विदेश के विषयों में अपने को महामण्डित मानते थे, और इस विषय में किसी की सम्मति सुनना भी अपना अपमान समझते थे, उन्होंने चीन के तिब्बत पर अधिकार को स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही साथ उन्होंने कश्मीर में शेख अब्दुला को सर्वेसर्वा मान लिया। यह भी इस्लाम के और चीन के इतिहास से अनभिज्ञता के कारण ही था।

जब चीन ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में से एक बड़ा-सा क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया और भारत के ड्यूरेण्ड रेखा से दक्षिण स्थित अक्साई चिन पर अधिकार कर वहां सड़क बना ली, तब भी जवाहरलाल नेहरू ने यह बात भारत की जनता से छुपा कर रखने का भरसक यत्न किया। इंगलैंड के एक पत्र के सम्वांददाता ने जब यह समाचार प्रकाशित करवा दिया तो भारत में हाय-तोबा मची, परन्तु अपनी ‘हां में हां’ मिलाने वाले अधिकांश मूर्ख संसद सदस्यों के समर्थन से वह भारत की जनता को शांत रखने में सफल हो गये।

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